Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
नीति वाक्यामृतम्
यत्प्रोक्तं प्रभुणा वाक्यं तत् प्रमाणं वदेचा यः । परिमितार्थ इतिज्ञेयो दूतो नान्यं बबीति यः ।।2।। प्रभुणा खितं यम्म ताद परस्टा निवेदयेत् ।
यः शासनहरः सोऽपि दूतो ज्ञेयो नयान्वितैः ॥३॥ अर्थ :- राजा को अभिष्ट न होने पर भी जिसका वाक्य सन्धि विग्रह सम्बन्धी प्रमाणित होता है, राजा जिसका उलंघन नहीं करता वह "निसृष्टार्थ' दूत कहा जाता है ।। ऐसा विचक्षण विद्वानों का कथन है ॥
राजा द्वारा उपदिष्ट सन्देश, वाक्य, शत्रु के प्रति जैसे का तैसा जाकर कहता है उसमें हीनाधिक नहीं करता उसे "परिमितार्थ" दूत कहते हैं 12 ॥
जो, राजा द्वारा लिखित लेखादि को दूसरे राजा को ज्यों का त्यों सुना देता है या पढ़ा देता है उसे "शासनहर" दूत कहा जाता है IB॥ कुरल में भी कुन्द कुन्द स्वामी ने यही भाव दर्शाया है :
आवेशादपि न बूते दुर्वाक्यं यो विचक्षणः । परराष्ट्रे स एवास्ति योग्यः शासनहारकः ॥१॥
परिच्छे.699.69. अर्थ :- जो दृढ़प्रतिज्ञ पुरुष अपने मुख से हीन और अयोग्य वचन कभी नहीं निकलने देता, विदेशी राजदरबारों में राजाओं के सन्देश सुनाने के लिए वे ही पुरुष योग्य शिष्य दूत सन्देशहर कहे जाते हैं 119 ॥ कुरल. दूत कर्तव्य, शत्रु स्थान में प्रवेश व निर्गमनादि :
अविज्ञातो दूतः परस्थानं न प्रविशेन्निर्गच्छेद्वा ।।5॥ मत्स्वामिनाऽसंधातुकामोरिपुमा विलम्बयितुमिच्छतीत्यननुज्ञातोऽपिदूतोऽप सरेद् गूढ़ पुरुषान्वाऽवसर्पयेत्।।6।। परेणाशु प्रेषितो दूतः कारणं विमृशेत् ।7।।
अन्वयार्थ :- (दूतः) वचोवाही (अविज्ञातः) विज्ञप्ति दिये बिना (परस्थानम्) शत्रु स्थान में (न) नहीं (प्रविशेत्) प्रवेश करे (वा) अथवा (निर्गच्छेत्) प्रस्थान भी नहीं करे 15 ॥ (मत्) मेरे (स्वामिना) स्वामी के साथ (असंधातुकाम) सन्धि का इच्छुक नहीं है (रिपुः) शत्रु अपितु (माम्) मुझे (बिलम्बयितुम्) युद्धेच्छा से मुझे देर कर रहा है (इति) इस प्रकार इस समय (अननुज्ञातः) उसे ज्ञात नहीं करके (अपि) भी (दूतः) वचोहर (अपसरेत्) बाहर निकल जावे । (वा) अथवा (गूढ पुरुषान) वृद्ध अनुभवी गुप्तचरों को अवसर्पयेत् ॥6॥ अर्थात् भेद दे : यदि (परेण) शत्रु द्वारा (आशु) शीघ्र ही (प्रेषित:) लौटा दिया तो (दूतः) दूत उसका (कारणम्) हेतू (विमृशेत्) विचार करे 17॥
विशेषार्थ :- वचोवाह (दूत) शत्रु से छिपकर - उसकी आज्ञा बिना, शत्रुस्थान में प्रवेश न करे और न ।
317