Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
श्रोतव्यानि महीपेन दूतवाक्यान्यशेषतः ।
विशेनेच्या परित्यज्य सुशुभान्यशुभान्यपि ॥1॥ अर्थ :- बुद्धिमान राजनीतिज्ञ राजा को ईर्ष्या परित्याग कर दूत द्वारा कहे हुए प्रिय अप्रिय सभी प्रकार के । वचन शान्ति से सुनने चाहिए ।। || दूत के प्रति शत्रु-रहस्यज्ञानार्थ राजकर्त्तव्य व शत्रु लेख :स्वयं रहस्य ज्ञानार्थ परदूतो नयाद्यैः स्त्रीभिरुभयवेतनस्तद् गुणाचार
शीलानुवृत्तिभिर्वा वचनीयः ।।24॥
चत्वारि वेष्टनानि खड्गमुद्रा च प्रतिपक्ष लेखानाम् ।।25॥ अन्वयार्थ :- राजा (स्वयं) आप (रहस्य ज्ञानार्थ) शत्रु के रहस्य को जानने के लिए (परदूतः) शत्रु राजा के दत्त को (नयाद्यैः) न्याय नीति से यक्त (स्त्रीभिः) वेश्यादि स्त्रियों द्वारा (उभय वेतन दोनों ओर से वेतनभोगी दूतों तथा (वा) अथवा (तद्गुणाचार शीलानुवृत्तिभिः) दूत के गुण, आचार-विचार स्वभाव से परिचितों द्वारा (वञ्चनीयः) वश करना चाहिए 24॥ विशेष :- शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
दूतस्य यद्रहस्यं च तद्वेश्योभयवेतनैः ।
तच्छीलैवा परिज्ञेयं येन शत्रुः प्रसिद्धयति ॥ अर्थ :- राजा को शत्रु-दूत का रहस्य, जिससे कि शत्रु राजा समुन्नत हो रहा है जानने के लिए वेश्याओं, दोनों तरफ से वेतन लेने वाले तथा दूत प्रकृति से परिचित व्यक्तियों द्वारा प्रयत्नशील रहना चा
(चत्वारि वेष्टनानि) चार कपड़ों में लपेटकर (खङ्गमुद्रा) राजमोहर (च) और लगा (प्रतिपक्ष लेखानाम्) शत्रु के लेखों को प्रेषित करें ।।
विशेष :- विजिगीषु राजा के पास प्रेषित लेखों-पत्रादि में चार वेष्टन लपेट उनके ऊपर चार मोहर लगाना चाहिए जिससे वे खुलने न पावें ।25।।
"॥ इति दूत समुद्देशः ॥" ।।13।। इति श्री परम् पूज्य प्रातःस्मरणीय विश्ववंद्य, चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट् महातपस्वी, वीतरागी, दिगम्बराचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर के पट्टाधीश तीर्थ भक्त शिरोमणि, समाधि सम्राट् आचार्य श्री 108 महावीर कीर्ति जी महाराज संघस्था, सन्मार्ग दिवाकर आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज की शिष्या श्री ज्ञानचिन्तामणि परम् पूज्य प्रथमगणिनी आर्यिका श्री 105 विजयामती जी ने यह विजयोदय हिन्दी भाषा टीका का 13वाँ समुद्देश परम् पूज्य तपस्वी सम्राट् सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य श्री 108 सन्मति सागर जी महाराज के चरण सान्निध्य में सोत्साहपूर्ण किया ।।
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