Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
तस्यैव तद्भूयात् यस्तान् गोपायति इति ॥ 25 ॥
अन्वयार्थ :- (उच्छ) संचित धान्यकण (षड्भागप्रदानेन) छठवां भाग देने से (वनस्था) वन में निवास करने वाले तपस्वी (अपि) भी (तपस्विनः) तापसी (राजानं ) नृप को (सम्भावयन्ति) सम्मानित करते हैं । ( तस्यैव) उसी के द्वारा (तद्भूयात्) उससे हुए फल द्वारा (यः) जो ( तान् ) उनको (गोपायति) रक्षित करता है । (इति)
हिन्दू धर्म में 14 मनु कहे गये हैं । उनमें से 7वाँ "वैवस्वत" नाम का मनु है । "इसने लिखा है कि वनवासी तापसी लोग भी जो कि स्वामी विहीन एवं निर्जन वन, पर्वत, आदि प्रदेशों में वर्तमान धान्यादिकणों से जीवन चलाते हैं वे भी राजा को अपने संचित धान्य कणों का 6वां भाग देकर उसकी समुन्नति की कामना करते हैं । एवं अपनी क्रिया- अनुष्ठानादि के समय भी संकल्प करते हैं कि "हमारे रक्षक नृपति को हमारे आचरण का 6वां भाग रूप तप का फल प्राप्त होवे " I
इष्ट व अनिष्ट वस्तु का निर्णय :
तदमंगलमपि नामंगलं यत्रास्यात्मनो भक्तिः 1126 |
अन्वयार्थ ' :- (यत्र) जहाँ (अस्य) इसे (आत्मनः ) आत्मा की (भक्तिः) भक्ति हो (तद्) वह (अमंगलम् ) अशुभ (अपि) भी ( अमंगलम् ) अनिष्ट (न) नहीं (भवति) होता है ।
जिस पदार्थ का सम्बन्ध आत्मीय प्रेम से होता है वह अमंगल अनिष्टकारक भी उसके लिए इष्ट- मंगलकारी होती है । यथा काणा, लूला, दरिद्री, व्यक्ति कार्यारम्भ के समय अशुभ समझे जाते हैं परन्तु जिनका इनके प्रति प्रेम होता है उसे ये शुभ- इष्ट प्रतीत होते हैं ।
विशेषार्थ संसार के प्रत्येक पदार्थ में सद्गुण-दुर्गुण विद्यमान रहते हैं । जिसके अभिप्राय में जो प्रिय है वह उसे अमङ्गलीक होने पर भी अनुकूल प्रतीत होता है और जिसके प्रति प्रीति नहीं है वह योग्य भी अयोग्यअहितकारी प्रतीत होती हैं । भागुरि ने भी कहा है :
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यद्यस्य वल्लभं वस्तु तच्चेदग्रे प्रयास्यति । कृत्यारम्भेषु तत्तस्य सुनिन्द्यमपि सिद्धिदम् ॥11 ॥
अर्थ :- जो पदार्थ जिसके लिए प्रिय है, वह अप्रिय होने पर भी उसे यदि कार्यारम्भ में पाता है तो मंगलरूप ही स्वीकार करता है । क्योंकि उससे उसके कार्य की सिद्धि हो जाती है । अभिप्राय यह है कि एक ही वस्तु किसी को प्रिय और अन्य को अप्रिय प्रतीत होती हैं। जिसे जो प्रिय होती है वही उसके लिए मंगलस्वरूप होती है । यथा- किसी व्यक्ति की एकाक्षी पत्नी है, सती साध्वी होने से उसे अतिप्रिय है । अन्य लोगों को विदेशादि प्रयाणकाल में अमंगलकारी होती है, परन्तु उस पति को प्रयाण समय मंगलारती और कंकणवन्धन कर विदा करती है तो वही उसे मंगलकारिणी सिद्ध होती है ।
सारांश यह है जो पदार्थ जिसके हृदय को प्रफुल्ल, प्रसन्न व संतुष्ट करे वही उसे मंगलकारी है भले ही संसार को वह अमंगलकारी क्यों न हो ।
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