Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
नीति वाक्यामृतम्
-
M
नहीं है। क्योंकि प्रकृति के कष्ट, दुष्ट और विरक्त होने से राज्य की वृद्धि किस प्रकार हो सकती है? नहीं हो सकती ॥166॥ प्रकृति क्रोध से हानि व अवध्य अपराधियों के प्रति कर्त्तव्यः
सर्वकोपेभ्यः प्रकृतिकोपो गरीयान् 167॥ अन्वयार्थ:- (सर्वकोपेभ्यः) सभी कोपों में (प्रकृतिकोपः) राजकर्मचारियों का क्रुद्ध होना (गरीयान) बलवान
अन्य प्रजादि कुपित हो तो राज-काज की उतनी क्षति नहीं जितनी कि सचिव-मंत्री, दूत, सेनादि राजकर्मचारियों के कुपित होने से होती है, क्योंकि इनके कुपित होने से राज्य की गड़ ही नष्ट हो जाती है। राजपुत्र ने कहा है--
राज्ञां छिद्राणि सर्वाणि विदुः प्रकृतयः सदा ।
निवेद्य तानि शत्रुभ्यस्ततो नाशंनयन्ति तम् ॥ अर्थ :- अमात्य आदि कर्मचारी राजा के सर्व दोष, कमजोरियों, छिद्रों को जानते हैं । अतएव विरुद्ध होने पर प्रकृति वर्ग शत्रु राजाओं को प्रकट कर राजा को मरवा देंगे । कहावत है "घर का भेदी लंका ढावे" विभीषण ने स्वोदर भ्राता रावण का भेद प्रकट कर उसको राम द्वारा मरवा डाला ।। अतएव राजा को राज कर्मचारियों से विरोध नहीं करना चाहिए । उन्हें सन्तुष्ट रखना ही श्रेयस्कर है 11167 ॥
अचिकित्स्यदोष दुष्टान् खनिदुर्गसेतुबन्धाकर कर्मान्तरेषु क्लेशयेत् ।168॥ अन्वयार्थ :- (अचिकित्स्य) उपायरहित (दोष) दोष (दुष्टान्) युक्त अपराधियों को (खनि-दुर्ग-सेतुबन्धआकर कर्मान्तरेषु) खाई, खोदना, किला, पुल, खान खोदनादि कार्यों में लगाकर (क्लेशयेत्) पीड़ित करे । कष्ट
विशेष :- जिन राजद्रोहियों का परिवार-कौटुम्बी सम्बन्धियों के कारण मृत्यु दण्डादि औषधि करना संभव या योग्य न हो तो उन्हें खाई खोदना, किला बनाना, सेतु निर्माण करना, खान खोदना आदि कष्ट साध्य कार्यों में नियुक्त कर क्लेशित करना चाहिए । शुक्र विद्वान ने इस विषय में लिखा है :
अवध्याज्ञातयो ये च बहु दोषा भवन्ति च ।
कर्मान्तरेषु नियोग्यास्ते येन स्युर्व्यसनान्विताः ॥1॥ अर्थ :- जो महा अपराधी राजवंशज है, वध करने के योग्य नहीं हैं, राजा को चाहिए कि उन्हें सरोवर, कूप खुदवाना आदि विभिन्न कार्यों में संलग्न कर दण्डित करे । इससे वे दुष्टता त्याग शिष्ट बन सकते हैं 1168 ।। कथागोष्ठी अयोग्य और उनके साथ कथा-गोष्ठी करने से हानि :-- अपराध्यैरपराधकै श्च सहगोष्ठी न कुर्यात् ।।169॥
"कुर्वीत" भी पाठ है 1
295