Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
अन्वयार्थ :- राजा को (अपराध्यः) अपराधियों के साथ (च) और (अपराध कैः) अपराध कराने वालों के साथ (सह) साथ (गोष्ठीम्) कथा-वार्ता (न) नहीं (कुर्यात्) करे ।
विशेष :- अपराध करने व कराने वाले शत्रु उच्छृखल, छिद्रान्वेषी और भयंकर विद्रोही, वैर-विरोध करने वाले होते हैं । इसलिए भूप को शत्रुकृत उपद्रवों से रक्षणार्थ उनके साथ कथा गोष्ठी नहीं विद्वान ने भी कहा है :
ते हि गृहप्रविष्ट सर्पवत् सर्वव्यसनानामागमन द्वारम् ।।170॥ अन्वयार्थ :- (ते) वे अपराधी (हि) निश्चय से (गृहप्रविष्टः) घर में घुसे (सर्पः) सांप (वत्) समान (सर्वव्यसनानाम्) सम्पूर्ण आपत्तियों का (आगमनम्) आने का (द्वारम्) दरवाजा है ।
विशेष :- जिस प्रकार घर में प्रविष्ट अहि घातक होता है उसी प्रकार सजापाये हुए और अपराधी लोग में परस्पर वार्तालाप के माध्यम से रहस्यपूर्ण छिद्रों को द्वेषी राजादि को प्रकट कर देंगे और राज्य को नष्ट कर देंगे । राजा को अनेक कष्ट पहुँचाने में ये दत्तचित्त रहते हैं । "शुक्र" विद्वान कहते हैं :
परिभूता नरा ये च कृतो यैश्च पराभवः ।
न तैः सह क्रियाद गोष्ठी य इच्छेद् भूतिमात्मनः ।। ___ अर्थ :.. और भी जो अपने ऐश्वर्य का इच्छुक है उस उपराधी व आपराध का दण्ड भोक्ता के साथ कथागोष्ठी नहीं करना चाहिए। क्योंकि वे अपराधी :
__ यथाहिर्मन्दिराविष्टः करोति सततं भयम् ।
अपराध्याः सदोषाश्च तथा तेऽपि गृहागताः ।। अर्थ :- जिस प्रकार अपने घर में प्रविष्ट अहि (सर्प) निरन्तर भयोत्पादक होता है उसी प्रकार अपराध करने वाला और अपराध का दण्डभोक्ता दोनों ही कृष्ण नाग वत् परिहार्य हैं, त्यागने योग्य हैं । क्रोधी के प्रति कर्तव्य :
नकस्यापि क्रुद्धस्य पुरतस्तिष्ठेत् ।।171॥ अन्वयार्थ :- (कस्य) किसी (क्रुद्धस्य) क्रोधी के (अपि) भी (पुरतः) सामने (न) नहीं (तिष्ठेत्) ठहरे।
विशेषार्थ :- क्रोध अन्धा होता है, मनुष्य को भी अन्ध-विवेकशून्य बना देता है । इसलिए कुपित व्यक्ति के समक्ष नहीं जाना चाहिए क्योंकि वह निरपराध को भी मार डालता है अपराधी की क्या बात ? गुरु विद्वान ने भी कहा है :
यथान्धः कुपितोहन्यात् यच्चवाग्रे व्यवस्थितम् । कोधान्धोऽपि तथैवात्र तस्मात्तं दूरतस्त्यजेत् ॥1॥
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