Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
N का, नाबालिक-असहाय कन्यादि का, एवं गदर-भगदडादि कारण से जनता से छूटे धनों का राजा स्वयं उपभोग नहीं करे ।
उपर्युक्त प्रकार से प्राप्त धन-वैभव का राजा स्वयं उपभोग न कर उसे प्रजा के हितार्थ, संरक्षणार्थ, समाज और राष्ट्र के हितार्थ व्यय करना चाहिए । शुक्र विद्वान ने लिखा है :
दुष्प्रणीतानि द्रव्याणि कोशे क्षिपति यो नृपः । स याति धनं गृह्य गृहार्थं स्वनिधिर्यथा ।।
अर्थ :- जो राजा चोर प्रभृति के खोटे धन को अपने खजाने में जमा करता है उसका तमाम समस्त धन नष्ट हो जाता है ।
समस्त कथन का सार यह है कि राजा को निस्पृही होना चाहिए । प्रजा से प्राप्त धन को उसी के हितार्थ व्यय करना चाहिए । जिससे प्रजा सन्तुष्ट रहे, राज्यप्रिय बने और राष्ट्र की सम्नति में प्रयत्नशील हो ।।5।। अन्यायपूर्ण दण्ड से हानि :
दुष्प्रणीतो हि दण्ड : काम क्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वं विद्वेषं करोति ।।6॥ अन्वयार्थ :- (दुष्प्रणीत:) बिना विचारे दिया (दण्डः) दण्ड (हि) निश्चय से (काम क्रोधाभ्याम्) काम, क्रोध द्वारा (वा) अथवा (अज्ञानात्) अज्ञानता से दिया होता है वह (सर्वम्) सब के साथ (विद्वेषम्) द्वेष भाव (करोति) करता है ।
जो राजा अज्ञानपूर्वक काम और क्रोध के वशीभूत होकर दण्ड नीति-शास्त्र की मर्यादा-अपराध के अनुसार पात्रादि का विचार न कर अनुचित विधि से दण्ड देता है तो समस्त लोग उसके शत्र बन जाते हैं । सारी प्रजा द्वेष करने लगती है 116
विशेषार्थ :- अन्यायी राजा का साथ उसकी प्रजा कभी नहीं देती अपितु उससे द्वेष करने लगती है । शुक्र विद्वान ने लिखा है :
यथा कुमित्रसंगेन सर्वं शीलं विनश्यति । तथा पापोत्थदण्डेन मिश्रं नश्यति तद्धनम् ॥1॥ किंचित् कामेन कोपेन किंचित्किंचिच्च जाड्यतः । तस्माद् दूरेण संत्याज्यं पापवित्तं कुमित्रवत् ।।2॥
अर्थ :- जिस प्रकार कुमार्गी खोटे मित्र की संगति से सदाचार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार अन्याय युक्त दण्डनीति से - अनुचित जुर्मानादि करने से -प्राप्त हुआ राजा का धन समूल नष्ट हो जाता है ।
इसलिए विवेकी नृप को काम-कोपादि व अज्ञान से दिये गये दण्ड द्वारा संचित पाप पूर्ण धन का खोटे मित्र समान दूर से ही त्याग देना चाहिए ।।
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