Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
नीति वाक्यामृतम्
N हानि करने में प्रयत्नशील रहता है । सतत अवसर की वाट जोहता रहेगा । गुरु विद्वान भी कहते हैं ।
सुखसुप्तमहिं मूखों व्यायं वा यः प्रबोधयेत् ।
स साबोधणं वाग्नदोषस्थात्मभृत्यवे ॥1॥ अर्थ :- जो मूर्ख किसी निर्दोषी, शिष्ट सदाचारी पुरुष को दूषण लगाता है वह अपनी मृत्यु के लिए सोये सर्प या व्याघ्र को जगाता है ऐसा समझना चाहिए In10 ॥ किसके साथ मित्रता नहीं करना चाहिए :
येन सह चित्त विनाशोऽभूत स सन्निहितो न कर्त्तव्यः ॥1॥ अन्वयार्थ :- (येन) जिसके (सह) साथ (चित्त) मन (विनाशो) मुटाव (अभूत) हो गया (स) उसे (सन्निहितः) निकटवर्ती (न) नहीं (कर्तव्यः) करना चाहिए ।।
जिसके साथ मन मटाव हो जाय उससे मित्रता नहीं करनी चाहिए ॥11111 दृष्टान्त :- सकृद्विधटितं चेतः स्फटिकवलयमिवकः संधातुमीश्वरः ।।112।।
अन्वयार्थ :- (सकृद्) एक बार (विघटितम्) विरुद्ध हुआ (चेतः) मन (स्फटिकवलयः) स्फटिकमणि के कंकण के (इव) समान (संधातुम्) जोड़ने में (क:) कौन (ईश्वरः) समर्थ हो सकता है ? कोई नहीं ।
स्फटिकमणि का कड्कण भिन्न होने पर जिस प्रकार जुडना अशक्य है उसी प्रकार मन फट जाने पर मिलना दुर्लभ है ।।112 | जैमिनि ने कहा है :
पाषाण घटि तस्यात्र सन्धिमग्नस्य नो यथा ।
क कणस्येव चित्तस्य तथा वै दूषितस्य च ॥1॥ अर्थ :- जिस प्रकार लोक में पाषाण निर्मित कंकण टूट जाने पर पुनः जुड़ नहीं सकता, उसी प्रकार पूर्व वैर के कारण प्रतिकूल हुआ मन अनुराग युक्त नहीं होता । स्नेह नष्ट होने का क्या कारण है ? :
न महताप्युपकारेण चित्तस्य तथानुरागो यथा विरागो भवत्यल्पेनाप्यपकारेण 113 ।।
अन्वयार्थ :- (महता) महान (अपि) भी (उपकारेण) उपकार से (चित्तस्य) मन की (तथा) उस प्रकार (अनुरागः) प्रीति (न) नहीं होती (यथा) जैसा (अल्पेन) अल्प (अपि) भी (अपकारेण) अपकार से (विरागः) विरक्ति (भवति) होती है ।
महान् उपकार करने पर भी उपकारी के प्रति उतना दृढ़ प्रेम-अनुराग नहीं होता जितना कि अत्यल्प भी अपकार करने वाले के प्रति विरक्तिभाव हो जाता है । विद्रोह भाव जाग्रत हो जाता है । विद्वान वादरायण ने भी लिखा है :
276