Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
विशेषार्थ :- काष्ठ में एक प्रकार का कीट लगता है जिसे दीमक या उदई कहते हैं । यह लकड़ी को धीरे-धीरे खाता हुआ पोला कर देता है । ऊपर से भक्षण करते समय लाइनें पड़ जाती हैं उन रेखाओं में कदाच कोई अक्षरात्मक- 'क, ग, प, अं आदि का आकार रूप रेखा खिंच जाय इसे ही "घुणाक्षरन्याय" कहा जाता है। उक्त प्रकरण में जिस प्रकार धुण से लकड़ी में अक्षर का बनना कदाचित् ही होता है, परन्तु निश्चित नहीं होता, उसी प्रकार मूर्ख पुरुष से मंत्रणा का ज्ञान भी कदाचित् भाग्योदय से हो सकता है । परन्तु वह निश्चित व सदा नहीं हो सकता 193 || गुरु विद्वान ने लिखा भी है :
यन्मूर्खेषु परिज्ञानं जायते मंत्र संभवत् ।
सहि घुणाक्षर न्यायो न तज्ज्ञानं प्रकीर्तितम् ॥1॥ अर्थ :- मुर्ख मनुष्यों को कार्याकार्य की विवेचना मंत्र सलाह का ज्ञान घुणाक्षर न्याय के समान कदाचित् होता है, परन्तु निश्चित व नियत न होने से उसे ज्ञान नहीं कह सकते । पागल के ज्ञानवत् शराब आदि के नशे के सदृश है। शास्त्रज्ञान शून्य मन की कर्तव्य विमुखता :
अनालोकं लोचनमिवाशास्त्रं मनः कियत् पश्येत् ॥4॥ अन्वयार्थ :- (अनालोकम्) ज्योति विहीन (लोचनम्) नेत्रों (इव) समान (अशास्त्रम्) अज्ञानी जड़ रूप (मनः) मन (कियत्) कितना (पश्येत्) देख सकता है ? कर्तव्य बोध कर सकता है ? नहीं कर पाता ।
विशेषार्थ :- जिस प्रकार नेत्रविहीन पुरुष पट-घटादि पदार्थों को सम्यक् प्रकार नहीं देख सकता, उसी प्रकार शास्त्रज्ञान शून्य मन यथार्थ योग्यायोग्य, कर्त्तव्याकर्तव्य, हेयोपादेय का ज्ञान नहीं कर सकता । गर्ग विद्व
आलोक रहितं नेशं यथा किंचिन्न पश्यति । तथा शास्त्रविहीनं यन्मनो मंत्रं न पश्यति ॥1॥
अर्थ :- ज्योति विहीन नेत्र जिस प्रकार कुछ भी अवलोकन नहीं कर पाते उसी प्रकार शास्त्रज्ञान विरहित मन भी कुछ विचार नहीं कर पाता है । न्याय शास्त्रशून्य मन भी मन्त्रणा का निश्चय नहीं कर सकता । मन शास्त्रज्ञान के अवलम्बन से विचारणा शक्ति प्राप्त करता है। अतः मनोव्यापार के साथ शास्त्र ज्ञान होना अनिवार्य है । 1941 सम्पत्ति प्राप्ति का उपाय :
स्वामिप्रसादः सम्पदं जनयति न पुनराभिजात्यं पांडित्यं वा 195॥ अन्वयार्थ :- (स्वामिप्रसादः) पृथ्वीपति की प्रसन्नता (सम्पदम्) सम्पत्ति (जनयति) उत्पन्न करती है (पुनः) तथा (अभिजात्थम्) कुल (वा) अथवा (पाण्डित्यम्) विद्वत्ता (न) नहीं ।
स्वामी की प्रसन्नता सम्पत्ति प्राप्ति का उपाय है, कुलीनता व विद्वता नहीं । अर्थात् आश्रित मनुष्य कितना ।
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