Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- जो मंत्री, मन्त्रणा-गृह में विराजकर अपने राजा का सर्वनाश करने की युक्ति सोचता है वह सप्तकोटि बैरियों से भी अधिक भयंकर है ।। अतः मन्त्री को व्यसन त्यागी ही होना चाहिए । राजा से द्रोह करने वाले मंत्री का स्वरूप :
किं तेन केनापि यो विषदि नोपतिष्ठते ।।10।। अन्वयार्थ :- (तेन) उस मंत्री से (किं) क्या प्रयोजन (यः) जो (विपदि) आपत्ति काल में (न) नहीं (उपतिष्ठते) साथ में रहता ।।
आपत्ति काल में राजा का साथ नहीं देने वाली सचिव से क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं ।
विशेषार्थ :- उस सचिव व सेवक से क्या लाभ है ? जो संकट काल आने पर स्वामी-राजा की सहायता नहीं करता अपितु शत्रु के साथ मिलकराज, ह वैद, करा दे । चाहे वह विद्वान भी हो, व्यवकुशल भी क्यों न हो । उसका मंत्रित्व व सेवकत्वपना व्यर्थ ही है । उनका रखना व्यर्थ है । विद्वान शुक्र ने लिखा है
किं तेन मंत्रिणा योऽत्रव्यसने समुपस्थिते ।
व्यभिचारं करोत्येव गुणैः सर्वैर्युतोऽपि वा ।। अर्थ :- जो विपद्काल आने पर द्रोह करता है उस मन्त्री से राजा को क्या लाभ है ? चाहे वह सर्वगुणों से विभूषित ही क्यों न हो ?
__ अभिप्राय यह है कि मन्त्रि के सर्वगुणों में राजभक्ति व राजा के प्रति समर्पण भाव प्रमुख है । इसके अभाव में अन्य समस्त गुण व्यर्थ हैं । मंत्री को राजभक्त होना चाहिए । उक्त कथन का समर्थन :
भोज्येऽसम्मतोऽपि हि सुलभो लोकः ।।11॥ अन्वयार्थ :- (भोज्ये) भोजनकाल में (असम्मताः) विना निमंत्रण के (अपि) भी आने वाले (हि) निश्चय से (लोकः) लोग (सुलभाः) सुलभ (सन्ति) हैं ।।
खाना-पीना-भोजन बेला में बिना निमंत्रण के ही आने वाले बहुसंख्य एकत्रित हो जाते हैं । अभिप्राय यह है कि सुख के समय सहायकों की कमी नहीं रहती है । परन्तु विपत्ति काल में सहायक खोजने पर भी प्राप्त नहीं होते ।
विशेषार्थ :- संसार स्वार्थी है, । कहा है :
"सुख के सब लोग संगाती हैं दुःख में कोई काम न आता है ।" अर्थात् सुख के समय अनेकों मित्र मजा मौज उड़ाने को बिना बुलाये ही समन्वित हो जाते हैं । प्रीति दर्शाते हैं । परन्तु संकट काल आता है तो वे ही
आँखें दिखाते हैं । वल्लभ देव ने भी इस विषय में लिखा है :, "पात्रसमितौ हि सुलभी लोकः" पाठान्तर है मू.सू.
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