Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
N संसार में प्राणियों का शत्रु :
नास्थधिवेकात् पर: प्राणिनां शत्रुः 145॥ अन्वयार्थ :- (अविवेकात्) अविचार से (परः) अधिक (प्राणिनाम्) प्राणियों का (शत्रुः) रिपु (न) नहीं [अस्ति ] है ।
बिना विचारे कार्य सम्पादन करने से अधिक बलवान अन्य कोई शत्रु नहीं है ।
विशेषार्थ :- मनुष्य बुद्धि जीवी प्राणी है । बुद्धि का फल विवेक है । नीतिशास्त्र का विज्ञान प्रत्येक मानव को होना चाहिए । विज्ञान या विवेक ही मानव को बध, बन्धनादि कष्टों से रक्षा कर सकता है । गुरु विद्वान ने भी लिखा है :
अविवेकः शरीरस्थो मनुष्याणां महारिपुः ।
यश्चानुष्ठान मात्रोऽपिकरोति बधबन्धनम् ॥1॥ अर्थ :- अज्ञान-मूर्खता प्राणियों का महान शत्रु है । जिसके कारण से मनुष्यों को नाना प्रकार के बध बन्धन सहन करने पड़ते हैं । अभिप्राय इतना ही है कि मनुष्य अविवेक वश लक्ष्य से चूक जाता है और अनेक विपत्तियों का शिकार बन जाता है |45 || स्वयं करने योग्य कार्य को दूसरे से कराने से हानि :
आत्मसाध्यमन्येन कारयन्नौषध मूल्यादिव व्याधिं चिकित्सति 146॥ अन्वयार्थ :- (आत्मासाध्यम्) स्वतः करने योग्य कार्य (अन्येन) दूसरे के द्वारा (कारयन्) कराने वाला (औषधमूल्यात्) औषधि के मूल्य के ज्ञान (इव) समान (व्याधि) रोग (चिकित्सति) निवृत्ति करता है।
जो व्यक्ति स्वयं के करने योग्य कार्य को अन्य व्यक्ति द्वारा कराता है, वह औषधि के मूल्य ज्ञान से रोग की चिकित्सा कराने के समान है।
विशेषार्थ :- जिस प्रकार मात्र दवाई की कीमत समझ लेने मात्र से रोग की निर्वृति नहीं होती, उसी प्रकार स्वयं करने योग्य कार्य को दूसरे से कराने से सिद्ध नहीं हो सकता । कहावत है "अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता" अर्थात् अपना कार्य स्वयं अपने ही करना चाहिए । तभी कार्य सिद्धि होती है ।। भृगु विद्वान ने भी कहा है :
आत्मसाध्यं तु यत्कार्यं योऽन्यपाश्र्वात् सुमन्दधीः ।
कारापयति स व्याधिं नयेद् भेषजमूल्यतः ।।1।। अर्थ :- जो अज्ञानी, मूर्ख मनुष्य स्वयं करने योग्य कार्य को दूसरों से कराता है, वह औषधि का केवल मूल्य समझने से रोग का नाश करना चाहता है ।।।।
स्वयं के करने योग्य कार्य को अपने आप ही करना चाहिए 146॥
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