Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
अन्वयार्थ :- (स्वधर्मम्) अपने धर्म का (अतिक्रामताम्) उलंघन करने वालों (सर्वेषाम्) सर्वलोगों का (गुरुः) गुरु (पार्थिवः) राजा होता है ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यादि कोई भी वर्ण वाला यदि अपने धर्म का उलंघन करे तो उस समय उन्हें दण्ड देकर राजा ही कर्तव्यनिष्ठ करने में समर्थ होता है । कर्त्तव्यहीनों को स्वधर्म में नियुक्त करने वाला राजा ही प्रमाण है। विशेषार्थ :- भृगु विद्वान ने भी लिखा है कि :
उन्मत्तं यथा नाम महामन्तो निवारयेत् । उन्मार्गेण प्रगच्छन्तं तद्वच्चव जनं नृपः ।।1।।
अर्थ :- जिस प्रकार महावत् तीक्ष्ण अंकुश से उन्मत गज को वश में करता है उसी प्रकार राजा उन्मार्ग में गमन करने वाले को कठोर दण्ड देकर सन्मार्गारूढ़ करता है ।
अभिप्राय यह है कि "यथा राजा तथा प्रजा" राजा को स्वयं कर्तव्य निष्ठ-सदाचारी होना चाहिए और प्रजा को भी साम, दाम, भेद, दण्ड द्वारा सत्कर्मों में संलग्न रखना चाहिए ।22 ॥ प्रजापालक राजा को धर्म लाभ :
__परिपालको हि राजा सर्वेषां धर्मषष्ठांशमवाप्नोति ।।23 ॥ अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय से (परिपालक:) प्रजापालक नृप (राजा) नृप (सर्वेषाम्) सबके-प्रजा के (धर्मस्य) धर्म के (षष्ठांशम्) छठवें भाग को (अवाप्नोति) प्राप्त करता है ।
प्रजा जो कुछ धर्मानुष्ठान करती है उसका छठवां भाग राजा को स्वभाव से ही प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ :- जिस प्रकार प्रजा की आय का षष्ठांश ग्रहण करने का राजा को अधिकार होता है उसी प्रकार प्रजा के पुण्यार्जन के हेतू-भूत कार्यों-धमानुष्ठानों का भी षष्ठांश उसे प्राप्त होता ही है । मनु विद्वान ने लिखा है कि :
वर्णाश्रमाणां यो धर्म नश्यन्तं च प्ररक्षति ।
षष्ठांशं तस्य धर्मस्य स प्राप्नोति न संशयः ।।1।। अर्थात् जो राजा वर्णों और आश्रमों के नष्ट होते हुए धर्म का रक्षण करता है अर्थात् धर्मात्माओं के धर्म भ्रष्ट होने पर पुनः उन्हें धर्म में संलग्न करता है वह उनके धर्मकार्यों के छठवें भाग को प्राप्त करता है । निःसन्देह इतना फल उसे उपलब्ध होता ही है ।
अन्य मती तपस्वियों द्वारा राजा का सम्मान :
__ यदाह वैवस्वतो मनुः ।। उच्छाषड्भागप्रदानेन वनस्था अपि तपस्विनो राजानं सम्भावयन्ति 1124||
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