Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्।
(इच्छा नियमः) लोभ-परिग्रह सीमा (प्रतिलोमाविवाहः) स्वजाति में विवाह (च) और (निषिद्धासु) निषिद्ध (स्त्रीषु) पराई स्त्रियों में (ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य व्रत (इति) ये (सर्वेषाम्) चारों वर्गों के (समानः) सामान्य (धर्म:) धर्म (सन्ति)
समस्त जीवों पर दया करना, सत्य बोलना, अचौर्य, इच्छाओं का दमन, स्वजाति में गोत्रज छोड़ कर विवाह करना, परस्त्री सेवन का त्याग करना ये चारों ही वर्गों का समान धर्म है ।।13।।
भागुरि विद्वान ने भी लिखा है :
दयां सत्यं मचौर्य च नियमः स्वविवाह कम् । असतीवर्जनं कार्यं धर्मः सार्वः प्रकीर्तितः ॥1॥
अर्थ :- समस्त प्राणियों में दया का भाव रखना, सत्यभाषण करना, चोरी नहीं करना-परधन नहीं लेना, नियम इच्छा निरोध करना, विवाह स्वजाति में ही करना, परस्त्री का त्याग करना यह समस्त वर्णों का कल्याण कारक धर्म है 11॥ साधारण धर्म व विशेष धर्म निर्देश :
आदित्यावलोकन बत् धर्मः खलु सर्व साधारणो विशेषानुष्ठाने तु नियमः ॥14॥
अन्वयार्थ :- (आदित्य अवलोकन वत्) सूर्य के प्रकाश के समान (सर्व) सबके (साधारणः धर्मः) साधारण धर्म (खलु) निश्चय से कहे (विशेषानुष्ठाने) विशेष धर्मानुष्ठानों में (नियमः) अपने-अपने नियम [अस्ति] है ।
सामान्य से उपर्युक्त नियम चारों वर्गों के सदृश हैं, फिर भी विशेष धर्म अपने-अपने नियमानसुर होते हैं । प्रत्येक वर्ण व आश्रम अपने-अपने विशेषनियमानुष्ठान रखते हैं । विशेषार्थ :- नारद विद्वान ने लिखा है कि :
यस्य वर्णस्य यत् प्रोक्तमनुष्ठानं महर्षिभिः । तत्कर्त्तव्यं विशेषोऽयं तुल्य धर्मो न केवलम् ॥
अर्थ :- महर्षियों ने जिस वर्ण के जो जो धर्म वर्णित किये हैं उन-उन वर्गों को पालन करना चाहिए । केवल सर्व साधारण धर्मों का पालन कर ही सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए । अपितु विशेष धर्मों का विशेष रक्षण करना चाहिए । शास्त्रोंकारों ने विभिन्न वर्गों और आश्रमों के भिन्न-भिन्न विशेष धर्म-कर्तव्य बतलाये हैं उनका उन्हीं धर्म व आश्रम वालों को पालन करना चाहिए । एक-दूसरे के कर्त्तव्य व अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यह सनातन रीति है । इसका पालन करने से सभी को सुख-शान्ति रहती है । साधुओं का कर्तव्य :
निजागमोक्तमनुष्ठानं यतीनां स्वो धर्म : 15॥
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