Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
दण्ड नहीं देगा तो राज्य शासन व्यवस्था भंग होगी । अतः राजा को दण्ड न देना अशोभित्त है । नीतिकारों ने कहा है कि :
यो राजा निग्रहं कुर्यात् दुष्टेषु स विराजते ।
प्रसादे च यतस्तेषां तस्य तद्दूषणं परम् ॥1॥ अर्थ :- जो राजा दुष्टों का निग्रह करता है, अपराध को अनुकूल दण्ड देता है वह नृप शोभायमान होता है । उसके राज्य की शोभा होती है । तथा जो भूपति दुष्टों-दुर्जनों के प्रति क्षमा का भाव रखता है वह राजा दृषित होता है। उसका राज्य नष्ट होता है ।
जिस प्रकार जो अलंकार जिस अंग का होता है वह वहीं शोभा पाता है उसी प्रकार जिसके योग्य जो कार्य होता है वह भी उसी के द्वारा सम्पादित किये जाने पर शोभित होता है । विवेकियों को यथा योग्य विचा कर योग्य कार्य करना चाहिए । मनुष्य निंद्य किससे समझा जाता है उसे कहते हैं :
धिक् तं पुरुषं यस्यात्मशक्त्या न स्तः कोपप्रसादौ 140 । अन्वयार्थ :- (यस्य) जिसके (आत्मशक्तया) अपनी शक्ति के अनुसार (कोपप्रसादौ) क्रोध व क्षमा (न) नहीं (स्तः) करते हैं (तं) उस (पुरुषम्) पुरुष को (धिक्) धिक्कार है ।
अपनी शक्ति और योग्यतानुसार जो राजा अनुग्रह और विग्रह नहीं करता वह सतत् निंद्य समझा जाता है उसका राज्य वैभव निर्दोष नहीं रह सकता । वह धिक्कार का पात्र हैं । कहा भी है - व्यास का कहना है :
प्रसादो निष्फलो यस्य कोपश्चाऽपि निरर्थकः । न तं भर्तारमिच्छन्ति प्रजा पण्डमिव स्त्रियः ॥1॥
अर्थ :- जिस राजा की प्रसन्नता निष्फल है अर्थात् जो शिष्टों को प्रसन्न करके भी उनका अनुग्रह नहीं करता एवं जिसका क्रोध भी निष्फल है - जो दुर्जनों से क्रुध होकर भी उनका निग्रह नहीं करता उसे प्रजा अपना स्वामी राजा नहीं मानता । जिस प्रकार स्त्रियाँ नपुंसक को नहीं मानतीं ।
अभिप्राय यह है जिसके न्याय-नीति व्यवहार से दण्डित होकर भी प्रजा प्रसन्न रहे अथवा अनुग्रहीत होकर भी उसका गौरव मान्य करे वही श्रेष्ठ सफल राजा होता है । शत्रुओं का पराजय न करने वाले की आलोचना :
सं जीवन्नपि मृत एव यो न विकामति प्रतिकूलेषु ।।41॥ अन्वयार्थ :- (यो) जो राजा (प्रतिकूलेषु) राज्य विरुद्ध चलने वालों को (विक्रामति) दण्ड (न) नहीं । देता (स:) वह (जीवन्) जीता (अपि) भी (मृत) मरा (एव) ही [अस्ति] है ।
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