Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्।
अन्वयार्थ :- (येसाम) जिनके (वंशः) जाति-कुल परम्परा (वृतः) आचरण (विद्या) ज्ञान (अभिजन) नाम (विशुद्धा;) निर्दोष हों वही (हि) निश्चय से (राज्ञाम्) राजाओं का (उपाध्यायाः) गुरु (भवन्ति) होते हैं ।
जिनकी कुल वंश परम्परा शुद्ध होती है, निर्दोष चारित्र-आचरण और उत्तम विद्या हो वही राजाओं का गुरू होने के योग्य होता है ।
विशेषार्थ :- उच्चकुलोत्पन्न, शिष्टाचारी और सद्विद्यायुक्त व्यक्ति नृपतियों का उपाध्याय गुरु होना चाहिए । क्योंकि दाता जैसा होगा दातव्य वस्तु भी उसी प्रकार की रहेगी । सत्कर्त्तव्यों का पालन स्वयं करने वा दुसरे को पढ़ा सकेगा- सिखायेगा । कहावत है : .
जितना जो कुछ जानता, उतना दिया बताय ।
बाको बुरो न मानिये, और कहाँ से लाय ।। पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश ग्रन्थ में बड़ा मार्मिक कथन किया है :
अज्ञानोपासा अशा ज्ञानी ज्ञानसमाश्रयम् । ददाति यस्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वचः ।।
अर्थ: अज्ञानी-जडबद्धि व्यक्ति की उपासना का फल अज्ञान और ज्ञानी की सेवा का फल ज्ञान प्राप्ति है। क्योंकि नीति है "जो कुछ जिसके पास है, दूसरे को वह वही वस्तु देगा ।" यह संसार प्रसिद्ध बात है । अत: नीतिविद्या के इच्छूकों को नीतिविद्वानों का ही आश्रय करना चाहिए । नीतिकार विद्वान नारद का कथन है :
पूर्वेषां पाठ का येषां पूर्वजा वृत्तसंयुताः । विद्याकुलीनता युक्ता नृपाणां गुरवश्च ते ॥1॥
अर्थ :- जिनके पूर्वज राजवंश में अध्यापक रह चुके हों, जो सदाचारी हो, विद्वान और कुलीन हों वे ही भूपालों (राजाओं) का गुरू हो सकते हैं ।
कुलभूषण देशभूषण राजकुमारों के राजगुरू दिगम्बर मुनि थे, अत: उनकी विद्या भी अज्ञान तिमिर हारक, वीतराग परिणति उद्रेक सिद्ध हुयी । इसी प्रकार अन्यत्र भी सदाचार, शिष्टाचार, लौकिकाचार, धार्मिकाचार और सामाजिक आचार-विचार का ज्ञाता ही राज संचालन विद्या का अध्ययन करा सकता है। तभी राज्य संचालन की योग्यता विद्यार्थियों में आ सकती है । औचित्यज्ञाता राजा हो सकता है । शिष्टों के साथ नम्रता का बर्ताव करने वाले राजा के गुण
शिष्टानां नीचैराचरन्नरपतिरिह लोके स्वर्गे च महीयते ।।69॥ अन्वयार्थ :- (शिष्टानाम् ) महापुरुषों के प्रति (नीचैः) नम्रता का (आचरन्) व्यवहार करने वाला ।।
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