Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
जाता, अपितु समस्त इन्द्रियों और मन की चञ्चलता को रोकना-स्थिर करना योग है । यही ध्यान है अध्यात्म योग में धर्मध्यान हेतूभूत होकर प्रमुख स्थान रखता है -उस धर्मध्यान के चार भेद कहे हैं-1. पिण्डस्थ, 2. पदस्थ, 3. रुपस्थ और 4. रुपातीत । शुभचन्द्र स्वामी ने ज्ञानार्णव में कहा है :
पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्दा ध्यानमाख्यातं भव्य राजीव भास्करैः ।।1।।
ज्ञानार्णव ।।
पिण्डस्थ ध्यान में ध्याता-जितेन्द्रिय, विवेकी मनुष्य को- 1. पार्थिवी, 2. आग्नेयी, 3. वायु-श्वसना, 4. वारुणी और 5. तत्व रुपवती इन पाँच धारणाओं का चिन्तवन करना चाहिए । प.पू. तीर्थभक्त शिरोमणि मेरे विद्या गुरुवर्य आचार्य महावीर कीर्ति जी महाराज जो (आचार्य चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर, समाधि सम्राट् श्री 108 आदिसागर जी अंकलीकर के द्वितीय पट्टशिष्य थे) कहा करते थे कि आप लोग निरन्तर ध्यानाभ्यास करो । साधु बनकर आत्मदर्शन नहीं किया तो पिछी कमण्डलु लेने से क्या लाभ? कुछ भी नहीं । दु:खों की निवृत्ति के लिए ध्यानाभ्यास अवश्यंभावी है । पाचों धारणाएँ निम्न प्रकार हैं-1. पार्थिवी धारणा :- मध्यलोक स्थित मेरु से स्वयम्भूरमण नामक उदधिपर्यन्त एक विशाल सागर-तिर्यक्लोक पर्यन्त लम्बा-चौडा, नि:शब्द, निस्तरङ्ग और वर्फ सदृश शुभ्र-समुज्वल क्षीर सागर का चिन्तवन करे उसके मध्य सुन्दर रचनायुक्त, अमित दीप्ति से शोभित, तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति वाले प्रभापुञ्ज युत सहस्र दल कमल जो जम्बूदीप के सदृश एक लक्ष योजन विस्तार वाला हो प्रमुदित करता हो कमल का चिन्तवन करें । तत्पश्चात् उस कमल के मध्य सुमेरुपर्वत समान पीतवर्ण कान्ति से व्याप्त कर्णिका का ध्यान करें । पुनः उसमें शरत्कालीन चन्द्र के समान शुभ्र और ऊँचे सिंहासन का चिन्तवन करें । उसमें अपने आत्म द्रव्य को सुख से शान्तिपूर्वक विराजमान करे उसमें अपने आत्म द्रव्य को सुख से शान्तिपूर्वक विराजमान करें और क्षोभरहितराग,द्वेष, मोह रहित, समस्त पाप कर्मों को क्षय करने में समर्थ और संसार में उत्पन्न हुए ज्ञानावरणादि कर्म समूह को भस्म करने में समर्थ-प्रयत्नशील चिन्तवन करें । इस प्रकार पार्थिवी धारणा का स्वरूप है ।।
2. आग्नेयी धारणा :-निश्चल अभ्यास से नाभिमण्डल में सोलह दल का उन्नत, मनोहर कमल चिन्तवन करे, उसकी कर्णिका में महामंत्र (है) का तथा उन सोलह पत्तों पर अ आ इ ई उ ऊ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः इन 16 स्वरों को क्रमशः लिखा हुआ चिन्तवन करे ।
पश्चात् हृदय कमल में एक ऐसे कमल का चिन्तवन करे जिसका मुख नीचे की ओर हो, आठ पंखुड़ियाँ हों और प्रत्येक कली पर क्रमशः ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम गोत्र व अन्तराय हों ।
तदनन्तर पूर्व चिन्तित नाभिकमल की कर्णिका में स्थित है' रेफ से मन्द-मन्द निकलती हुयी धुंए की शिखा का और उससे निकली हयी प्रवाह रूप चिनगारियों की पंक्तियों का. पनः उससे निकलती हुई ज्वाला की लपटों का चिन्तवन करे । इसके अनन्तर उस ज्वाला (अग्नि) के समूह से अपने हृदयस्थ कमल और उसमें स्थित कर्मराशि को भस्म होता चिन्तवन करे । इस प्रकार आठों कर्म जल-बल कर खाक हुए विचारे । यह ध्यान का सामर्थ्य है ऐसा चिन्तवन करे ।
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