Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
श्रेयस्कराणि वाक्यानि स्युरुक्तानि यथार्थतः । विद्वद्र्यिदि भूपालो गुणद्वेषी न चेद्भवेत् ॥1॥
अर्थ :- राजा के समक्ष राजनीतिवेत्ताओं द्वारा प्रदत्त उपदेश तभी कार्यकारी-सफल होता है जबकि राजा गुणों से प्रेम करता हो, उन्हें प्राप्त करने की अंतरंग में चेष्टा हो । तथा राजगुणों से द्वेष भी नहीं करता हो । स्वामी के प्रति विद्वानों का कर्तव्य :
वरमात्मनो मरणं नाहितोपदेशः स्वामिषु ॥78।। अन्वयार्थ :- (आत्मनः) स्वयं की (मरणम्) मृत्यु (वरम्) श्रेष्ठ है किन्तु (स्वामिषु) अपने स्वामी को (अहितो-पदेशः) अहितकारी उपदेश देना (न) उचित नहीं है ।
सत्पुरुष का कर्तव्य है कि अपने स्वामी को कभी भी विपरीत परामर्श सलाह नहीं देनी चाहिए । व्यास जी भी इस विषय में कहते हैं :
अपवन्नपि बोद्धव्यो मंत्रिभिः पृथिवीपतिः । यथात्मदोषनाशाय विदुरेणाम्बिकासुतः ॥1॥
अर्थ :- यदि राजा अपनी हितकारी वार्ता-सलाह को ध्यानपूर्वक नहीं श्रवण करता है, तथाऽपि कर्तव्यनिष्ठ, राजभक्त मन्त्रियों को बार-बार हित की बातें समझाते रहना चाहिए 1 राजा को सन्मार्गारूढ़ करने का प्रयत्न करना चाहिये । निदर्शनार्थ- महात्मा विदुर ने धृतराष्ट्र को नाश करने के लिए-अन्यायपूर्ण राज्यशासन की लोलुपता का त्याग करने के लिये समझाया था ।
महात्मा विदुर ने धृतराष्ट्र को अनेक बार उसे हितकारक उपदेश दिया था कि "हे राजन् ! पाण्डवों का अब वनवास काल की अवधिपूर्ण हो चुकी है । अत: आप उनका न्याय-प्राप्त राज्य लौटा दें, आपको अन्यायपूर्ण राज्य लिप्सा या तृष्णा छोड़ देनी चाहिए, अन्यथा आपके कुरुवंश का भविष्य खतरे से खाली न रहेगा । तुम्हें आप्त पुरुषों की अवहेलना नहीं करनी चाहिये । मैं आपको तात्कालिक-अप्रिय परन्तु भविष्य में अति प्रिय, उत्तम-हितकारक बात कह रहा हूँ" इत्यादि रूप में समझाया । सच्चा हितैषी वही है जो अपने स्वामी के हितार्थ कट होने पर सत्यमार्गारूढ करने का प्रयत्न करे । परन्तु उसने (धृतराष्ट्र) तनिक भी ध्यान नहीं दिया । अपनी अनीति को नहीं छोडा । फलतः महाभारत के भयंकर युद्ध में सकुटुम्ब नष्ट हो गया, दुर्गति पात्र हुआ और अपयश का पात्र भी हुआ । "यतोऽपि भ्रष्टः ततोऽपिभ्रष्ट" वाली दशा हुई । जो हो मनीषियों को कर्तव्य च्युत नहीं होना चाहिए। ॥
इति श्री प.पूज्य प्रातः स्मरणीय विश्ववंद्य चारित्रचक्रवर्ती, मुनि कुञ्जर सम्राट् महान् तपस्वी, वीतरागी दिगम्बराचार्य श्री 108 आदिसागर जी अंकलीकर के पट्टाधीश तीर्थभक्त शिरोमणि आचार्य परमेष्ठी श्री महावीर कीर्ति जी महाराज के संघस्था, प.पू.कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज की शिष्या, ज्ञानचिन्तामणि प्रथम गणिनी आर्यिका सिद्धान्त विशारदा श्री विजयामती द्वारा श्री.प.पूज्य सिद्धान्त चक्रवर्ती तपस्वी सम्राट् आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज के चरण सान्निध्य में हिन्दी"विजयोदय टीका" के अन्तर्गत "विद्यावद्ध सम्मद्देश" पांचवां समाप्त हुआ ।।5।
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