Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
अथवा (स्वस्य) अपने (अर्थ) धन (संचयेन) प्राप्त करने से (मनः) मन का (प्रतिरञ्जनो) अति आनंदित होना (हर्षः) हर्ष (कथ्यते) कहा जाता है ।
__ निष्प्रयोजन दूसरों को कष्ट पहुँचाकर मन में प्रसन्न होना अथवा इष्ट वस्तु-धनादि की प्राप्ति होने पर मानसिक प्रसन्न का होना हर्ष है ।
विशेषार्थ :- दुनियां दुरंगी है । कुछ लोग पर के दुःख से सुखी होते हैं और कुछ लोग अपने सुख से सुखी होते हैं । यहाँ यही दर्शाया है । बिना प्रयोजन ही दुर्जन दूसरों को सताकर हर्षानुभव करते हैं । बलि चढ़ाने वाले निरीह पशुओं को बलि चढ़ा कर आनन्द मानते हैं । अन्य भी ऐसे लोग हैं, किसी के जन-धन-यश के नाश होने पर हर्ष मानते हैं और कुछ मध्यम श्रेणी वाले अपने योग्य इष्टपदार्थों के संचय करने पर आनन्द मानते हैं तथा उत्तम पुरुष स्व और पर दोनों के सुख में हर्ष मानते हैं । चित्तवृत्ति वैचित्र्य है - भारद्वाज ने कहा है -
प्रयोजनं बिना दुःखं यो दत्त्वान्यस्य हृष्यति ।
आत्मनोऽनर्थ सन्देहै: स हर्षः प्रोच्यते बुधैः ।।३॥ अर्थ :- जो व्यक्ति बिना प्रयोजन दूसरों को कष्ट पहुँचाकर हर्षित होता है एवं अपनी इष्ट वस्तु की प्राप्ति में किसी प्रकार का सन्देह न होने पर हर्षित होता है उसे विद्वान हर्ष कहते हैं ।
वस्तुतः नैतिक मनुष्यों को मानसिक, शारीरिक व आर्थिक विकास के लिए सदैव हर्षित रहना उत्तम हैं । परन्तु निष्कारण किसी दीन-हीन गरीब को सताना-कष्ट पहुँचाना और सुखानुभव करना उचित नहीं । क्योंकि इससे पाप बन्ध तो होता ही है लोक निन्दा भी होती है । सत्पुरुषों की दृष्टि में वह घृणा का पात्र हो जाता है । यही नहीं धनादि इष्ट वस्तु पाकर इठलाना, अहंकार-प्रदर्शन करना और अपने को अति प्रसन्न मानना यह भी तुच्छता और संकीर्ण मनोवृत्ति का द्योतक है । क्योंकि इससे लौकिक सम्मान दूषित होता है और दूसरे लोग ईष्या भी करने लगते हैं । शत्रु बहुत हो जाते हैं । तथा वहिरात्मबुद्धि होने से संसार परिभ्रमण का भी कारण है । अतएव हर्ष यथार्थ में वह है जिससे आत्मीय आनन्द जाग्रत हो । परिणामों में दया और समताभाव उत्पन्न हो । वही हर्ष मानना चाहिए ।
"इत्यरिषड्वर्ग समुद्देशः समाप्तः ।। प. पूज्य विश्ववंद्य, चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुंजर सम्राट् महान् तपस्वी, वीतरागी, दिगम्बराचार्य 108 श्री आदिसागर जी अंकलीकर के पट्टाधीश आचार्य शिरोमणि श्री समाधि सम्राट् महावीर कीर्ति जी महाराज संघस्था एवं श्री प.पूज्यकलिकालसर्वज्ञ आचार्य श्री विमल सागर जी की शिष्या, ज्ञानचिन्तामणि, सिद्धान्त विशारदा प्रथम गणिनी आर्यिका विजयामती द्वारा विजयोदय हिन्दी टीका का चतुर्थ परिच्छेद प. पूज्य सिद्धान्त चक्रवर्ती उग्रतपस्वी सम्राट् अंकलीकर आचार्य के तृतीय पट्टाधीश श्री सन्मति सागर जी महाराज के चरण सान्धिय में सम्पूर्ण हुआ ।
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