Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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-------- नीति वाक्यामृतम् ----
नहीं बोलता अर्थात् समवेदना नहीं दिखाता पर के दुःख से द्रवित नहीं होता वह मनुष्यों का ऋणी है । संसार में दो प्रकार के मनुष्य हैं - 1. निस्वार्थ और 2. स्वार्थान्ध । अर्थात् 1. उत्तम और 2. अधम।
निस्वार्थी-त्यागीजन अपने जीवन को काँच की शीशी के समान क्षणभंगुर समझ कर स्वार्थ को ठुकरा देते हैं, जनता के उपकार में अपने जीवन को अर्पण करते हैं । अपना आत्मकल्याण भी करते हैं और पर के उपकार में सहयोगी होते हैं : उनकी चन्द्रवत् लोक में कीर्ति प्रसारित होती है । वह लोक सेवा कर जनता के कर्ज से मुक्त हो जाते हैं । क्योंकि उसके फलस्वरूप जनता उनके वियोग हो जाने पर शोकाकुल होती है । परन्तु दूसरे स्वार्थान्ध पुरुष परोपकार नहीं करते और जनता को कष्ट देते हैं, अतः उनके मर जाने पर भी किसी को जरा भी शोक नहीं होता, इसलिए वे लोग मनुष्यजाति के ऋणी समझे जाते हैं 16 || नैष्ठिक ब्रह्मचारी पुत्रविहीन होने पर भी ऋणी नहीं होता -
आत्मा वै पत्रो नैष्ठिकस्य 117॥ अन्वयार्थ :- (नैष्ठिकस्य) नैष्ठिक ब्रह्मचारी का (आत्मा) आत्मा (वै) ही (पुत्रः) पुत्र-सुत (अस्ति) है। नैष्ठिक ब्रह्मचारी की आत्मा ही उसका सुत है । ऋषिपुत्रक विद्वान ने लिखा है -
तेनाधीतं च यष्टं च पुत्रस्यालोकितं मुखम् ।
नैष्ठिको वीक्ष्यते यस्तु परमात्मानमात्मनि ॥1॥ अर्थ :- जो नैष्ठिक (बाल ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी अपनी आत्मा में परमात्मा का प्रत्यक्ष कर लेता है, उसने शास्त्र पढ़ लिए, ईश्वर दर्शन कर लिया, भगवद्भक्ति करली, पुत्रमुखावलोकन कर लिया- अर्थात् पितृऋण से मुक्त हो गया ऐसा समझा जाता है ।।
नैष्ठिक ब्रह्मचारी अविवाहित होता है अतः उसे पुत्र की कामना द्वारा पितृ ऋण चुकाने की आवश्यकता नहीं 170 नैष्ठिक ब्रह्मचारी का महत्त्व :
"अयमात्मात्मानमात्मनि संदधानः परांपूततां सम्पद्यते ।।18॥" अन्वयार्थ :- (अयम्) यह नैष्ठिक ब्रह्मचारी (आत्मा) पवित्रात्मा (आत्मानम्) आत्मा को (आत्मनि) आत्मा में (संदधानः) धारण करता हुआ (पराम्) उत्कृष्ट (पूतताम्) पवित्रता को (सम्पद्यते) प्राप्त कर लेता है ।
नैष्ठिक ब्रह्मचारी अपने आत्मा को आत्मा में धारण कर देखता हुआ परम विशुद्धि को प्राप्त कर लेता है।
विशेषार्थ :- आत्म स्वभाव में रमण करना ब्रह्मचर्य है । आजीवन असिधारा व्रत पालने वाला कामिनी संयोग से रहित होता है । अत: निराकुल होने से अपने आत्मा को अपनी ही आत्मा में प्राप्त कर परम विशुद्धि हो परम सुखानन्द प्राप्त करता है । नारद विद्वान ने कहा है -
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