Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
" खण्डचादर - इतनी छोटी चादर जिससे पाँव ढंके तो शिर नहीं, और शिर ढके तो पांव नहीं ।"
इस विवेचन से स्पष्ट है कि उपर्युक्त पूर्व लक्षण जैनसिद्धान्त की अपेक्षा नहीं है। अन्यमती संस्कृत टीकाकार न लिखा है ऐसा प्रतीत होता है ।
परमत की अपेक्षा से वानप्रस्थ के भेद :
वालिखिल्य औदम्बरी वैश्वानराः सद्यः प्रक्षल्यकश्चेति वानप्रस्थाः ॥24 ॥
अन्वयार्थ :- ( वालिखिल्य : ) वालिखिल्य, ( औदम्बरी) औदम्बरी, (वैश्वानरः) वैश्वानर, (च) और (सद्य: प्रक्षल्यकः ) सद्यप्रक्षल्यक
वानप्रस्थ चार प्रकार के हैं - 1. बालिखिल्य 2. औदम्बरी 3. वैश्वानर 4 और सा: प्रक्षल्यक ।
१. जो प्राजीन गार्हपत्य अग्नि को त्यागकर केवल अरणी समिधविशेष को साथ लेजाकर बिना स्त्री के वन को प्रस्थान करता है वह वन में रहने वाला 'वालिखिल्य' है ।
2. जो पुरुष पांचों अग्नियों से विधिपूर्वक पांच यज्ञ-पितृयज्ञ, देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, अतिथियज्ञ और ऋषियज्ञ करता है उसे "औदुम्बर" वानप्रस्थ कहते हैं" ।
3. जो यज्ञपूर्वक त्रिकाला करता है और अतिथियों की पूजा करके उन्हें खिला-पिलाकर स्वयं कंदमूल और फलों का भोजन करता है वह "वैश्वानर" कहा जाता है ।
4. जो केवल भोजन मात्र को धान्यविशेष और घृत का संग्रह करता है और अग्नि की पूजा करता है उसे 'सद्यप्रक्षालक वानप्रस्थ कहते हैं ।
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यति व साधु का लक्षण निर्देश करते हैं :
देखिये सं. टीका पू. 50
यो देहमात्रारामः सम्यग्विद्यानीलाभेन तृष्णासरित्तरणाय योगाय यतते यतिः ॥ 25 ॥
अन्वयार्थ ::- (यः) जो ( देहमात्रारामः) शरीर मात्र से आत्मा को (सम्यक् ) सम्यक्त्व (विद्या) सम्यग्ज्ञानरूपी (नौ) नाव (लाभेन) द्वारा प्राप्ति से (तृष्णा) तृष्णारूपी (सरित्) नदी (तरणाय) पार करने के (योगाय) योग्य ( यतते) प्रयत्न करता है (सः) वह ( यतिः) साधु है ।
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जो शरीर मात्र से अपनी आत्मा को सन्तुष्ट रखता है शरीर के सिवाय दूसरे वहिरङ्ग धन-धान्यादि और अन्तरङ्ग - कामक्रोधादि परिग्रह त्याग किए हुए हैं और सम्यग्ज्ञानरूपी नौका से तृष्णारूपी नदी को पार करने के लिए ध्यान करने का प्रयत्न करता है, उसे 'यति' कहते हैं ।
विशेषार्थ :- " यतते इति यतिः " जो प्रयत्नशील होता है वह यति कहलाता है। कहाँ यत्न करना ? आत्मा का आत्मा में, आत्मा के लिए जो कुछ प्रयत्न किया जाता है उसे सद्प्रयत्न कहते हैं इसका कर्ता "यति" कहलाता है ।
विद्वान हारीत ने भी इसी प्रकार का लक्षण बताया है :
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