Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम् अर्थ :- मानवजाति की जीवित-जाग्रत दो आंखें हैं । एक को अंक कहते हैं और दूसरी को अक्षर ।।2 | इनके आधार से आगम बनता है ।
जो पुरुष शिक्षित होते हैं वे ही नेत्र वाले कहे जाते हैं । अशिक्षित के मुख पर रहने वाली चक्षु द्वय केवल मात्र गर्त-गड्ढे हैं । नेत्रों का फल अपाय से रक्षण करना है - अर्थात् गर्त में पड़ने, कांटों से वचना आदि है ! इसी प्रकार परमार्थ दृष्टि से विषय-विष कंटकों से रक्षण करने वाला आगम है । जो आगम के आधार से जीवन यापन करता है वही सफल नेत्र मानव कहा जाता है । और भी कहा है :
शिक्षित को सारी मही, घर है और स्वदेश । फिर क्यों चूके जन्म भर, लेने में उपदेश ।।7॥
कुरल.प.240 अर्थ :- विद्वान के लिए सभी जगह उसका घर है और सर्वत्र ही उसका अपना देश है । आचार्य यहाँ आश्चर्य प्रकट करते हैं कि फिर भी मनुष्य विद्यार्जन में क्यों प्रमाद करते हैं ? अतएव निरालस्य, उत्साहपूर्वक ज्ञानार्जन करना चाहिए । आचार्य कहते हैं कि जो मनुष्य विनयपूर्वक सोत्साह विद्यार्जन करता है वह विस्मृत भी हो जाये तो भी परभव में साथ देती है, उसका संस्कार बना रहता है । अत: विद्या प्राप्ति में विलम्ब नहीं करना चाहिए । शास्त्रज्ञान शून्य पुरुष का विवरण :
अनधीत शास्त्रश्चक्षुष्मानपि पुमानन्ध एव ।।36 ।। अन्वयार्थ :- (चक्षुष्मान्) नेत्रों वाला (अपि) भी (पुमान्) मनुष्य (अनधीतशास्त्रः) शास्त्र नहीं पढ़ने वाला (अन्धः) नेत्रविहीन (एव) ही (अस्ति) है ।
अपठित मनुष्य आँखों के रहते हुए भी अन्धे के सादृश है ।
विशेषार्थ :- जिस मानव ने शुभ-समीचीन शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया, वह नेत्रसहित भी अन्धा है। जिस प्रकार चक्षुविहीन को सामने रखे हुए पदार्थ भी दीखते नहीं, योग्यायोग्य समझता नहीं, उसी प्रकार विवेकसम्यग्ज्ञान शून्य मूर्ख व्यक्ति भी कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, योग्य-अयोग्य, सुखद-दुःखद रूप पदार्थों का निर्णय नहीं कर पाता। विद्वान भागुरि ने लिखा है :
शुभाशुभं न पश्येच्न यथान्धः पुरतः स्थितम्
शास्त्रहीनस्तथा मत्यो धर्माधर्मों न विन्दति ।। अर्थ :- जिस प्रकार अन्धा पुरुष सामने रखी हुई शुभ-अशुभ वस्तु को नहीं देख सकता, उसी प्रकार शास्त्रज्ञान विहीन मूर्ख भी धर्म और अधर्म नहीं जान सकता ।। शास्त्राध्ययन अज्ञान नाशक तो है ही साथ ही विपुल कर्मों की निर्जरा का भी हेतू है । कहा है :
भावयुक्तोऽर्थतन्निष्ठ : सदा सूत्रं तुयः पठेत् । स महानिर्जरार्थाय कर्मणो वर्तते यतिः ।122॥
श्लो.सं. पृ.80॥
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