Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
को (अवैति) जानता है (च) और (अहितम्) अहित को (अपोहति) दूर करता है (सा) वे (विद्या;) विद्याएँ (कथ्यते) कही जाती हैं।
जिनको ज्ञात कर मनुष्य अपनी आत्मा को हित कारक सुख के साधनों में लगाता है और अहितकारक पदार्थों का स्वरूप अवगत कर उनसे हटाता है वे विद्याएं कहलाती हैं ।
विशेषार्थ :- जो सुख की प्राप्ति और दुःख से संरक्षण करावे वे विधाएँ कहलाती हैं । उपर्युक्त गुणों से विशिष्ट विद्याएँ सद्विधाएँ कहलाती हैं और इनसे विपरीत उक्त गुणविहीन अविद्या हैं - कुविद्या है । भागुरि विद्वान ने इस सम्बन्ध में निम्न प्रकार कहा है :...
यस्तु विद्यामधीत्याथहितमात्मनि संचयेत् ।
अहितं नाशयेद्विद्यास्ताश्चान्याः क्लेशदाः मताः ॥1॥ अर्थ :- जो विद्वान विद्या को पढकर अपनी आत्मा को सुख और सुख के साधनों में प्रवृत्त और दुख एवं दुख के कारणों से निवृत्त होता है वही सद्विद्या है - सम्यक्-समीचीन विद्याएँ हैं इसके विपरीत अन्य अविद्याएँ हैं कुविद्याएं हैं । ये कष्ट देने वाली हैं ।
सत्पुरुषों का कर्तव्य है कि वे समीचीन सत्य विद्याओं का आश्रय लेकर आत्मविकास करें । राजविधाओं के नाम और संख्या
__ आन्विक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिरिति चतस्रो राजविधाः ।।56॥
अन्वयार्थ :- (आन्विक्षिको) आन्विक्षिकी (त्रयी) त्रयो (वार्ता) वार्ता (च) और (दण्डनीतिः) दण्डनीति ( चतस्रः) ये चार (राजविद्याः) राज विद्याएँ हैं ।
विशेषार्थ :-1. आन्विक्षिकी -- जिसमें आध्यात्मतत्त्व, आत्मतत्व, तथा उसके पूर्वजन्म और अपर जन्म आदि की अकाट्य युक्तियों द्वारा सिद्धि की गई हो उसे "आन्विक्षिकी" विद्या कहते हैं इसे दर्शनशास्त्र व न्यायशास्त्र भी कहते हैं ।
2. त्रयी :- (चरणानुयोग शास्त्र) - जिसमें ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय एवं शूद्र इन चारों वर्णों व ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति इन चार आश्रमों के कर्तव्यों का विवेचन व्याख्या जिसमें वर्णित हो वह यीविधा कही जाती है । इस विद्या को "आचारचार'' शास्त्र भी कहा जा सकता है या कहते हैं ।
3. वार्ता विद्या :- जिस लौकिक शास्त्र में प्रजा के जीवनोपायों - 1. असि, खड्ग-आयुध धारण करना 2. मषि-लेखन कला, 3. कृषि-खेती करना, 4. विद्या-कला, विज्ञान, 5. वाणिज्य-व्यापार और 6. शिल्प-चित्रकला, नृत्यकला गानकला आदि । इन क्रिया-कलापों-कर्तव्यों का जिसमें विवेचन हो वह वार्ता विद्या कही जाती है ।
4. दण्डनीति विद्या :- जिसमें प्रजाजनों की रक्षार्थ शिष्टों का पालन और दुष्टों का निग्रह करने का उपदेश हो, उसे दण्डनीति विद्या कहते हैं । अन्याय और अत्याचार की प्रवृत्ति को रोकने के लिए दुराचारियों, दुर्जनों, चोरादि
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