Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम् - N राजा के कर्त्तव्य कहते हैं
न पुनः शिरोमुण्डनं जटाधारणादिकम् ॥३॥ अन्वयार्थ :- (शिरोमुण्डनम्) मुण्डन करना (पुनः) फिर (जटाधारणादिकम्) जटाएँ बढ़ाना आदि (न) राजा के कर्त्तव्य नहीं (अस्ति) है ।
शिर के बाल मुडाना और जटाओं का धारण करना, वल्कलादि पहननाआदि राजाओं का धर्म नहीं है ।
विशेषार्थ :- जिस प्रकार जिस अंग का आभूषण हो उसे उसी अंग पर धारण करने से शोभा होती है, पुष्प उद्यान में या देव के चरणों में शोभा पाता है उसी प्रकार राजाटिकों के योग्य क्रियाएँ दी राजशोभा बढ़ाती हैं। मूंड मुडाना (शिरोमुण्डन) या जटा बढ़ाना आदि क्रियाएँ संन्यासी की हैं न कि राजा की । अतः राजशासक इस वेषभूषा को धारण करेगा तो वह अनधिकार चेष्टा करने से नियम से अशोभन होने के साथ-साथ कर्तव्यच्युत होगा,
नाश ही संभव है । क्योंकि प्रजापालकों को प्रजापालन रूप सत्कार्यों के अनुष्ठान से ही धर्म, अर्थ और काम-तीनों पुरुषार्थों की सहज सिद्धि होती है । अतएव उसे उस राजावस्था में राजकीय वेश-भूषा ही धारण करना शोभनीय है न कि संन्यास रूप धारण करना । भागुरि विद्वान ने लिखा है -
व्रत चर्यादिको धर्मो न भूपानां सुखावहः ।
तेषां धर्मः प्रदानेन प्रजासंरक्षणेन च ।।1॥ अर्थ :- व्रत, नियम आदि का पालन करना राजाओं को सुखदायक नहीं है क्योंकि उनका धर्म तो प्रजापालन करना है । तथा उसे पीड़ा देने वाले शत्रुओं को नष्ट करना है । गुजराती में कहावत है :
"जाको काम जाई को छाजे, बीजो करे तो उंको बाजे" अर्थात् जिसके योग्य जो कार्य है वह उसी को करना चाहिए । इसी भांति करने से कार्य की सिद्धि होती है अन्य प्रकार से नहीं । यदि कोई बढई चित्र बनाने बैठे, चित्रकार दीवालचिनने लगे, माला कार (माली) आभूषण गढ़ने बैठे तो क्या होगा? कार्य तो नहीं होगा, यह तो सही है, परन्तु साथ ही कार्य नष्ट ही हो जायेगा, विपरीत हो जायेगा । इसी प्रकार राजा भी राज गद्दी पर आसीन उसी के अनुकूल वस्त्राभूषण, शरीर संस्कारादि होगा तो उसकी, शासन की और शासितों की भी शोभा है । इसी प्रकार शिष्टाचार, शीलाचार, धर्माचरण, नैतिकाचार पालन भी उसे अनिवार्य हैं क्योंकि राजा प्रजा का आदर्श है, गाइड है, प्रजा के सन्मार्ग दर्शक है । यही कारण है कि उसे उसी रूप रहना पड़ता है तभी सफलता प्राप्त होती है । राज्य का लक्षण :
राज्ञः पृथ्वी पालनोचितं कर्म राज्यम् ।। अन्वयार्थ :- (राज्ञः) राजा के (पृथ्वीपालनोचित) भूमि-राज्य के प्रति-पालन करने योग्य (कम, कार्य को (राज्यम्) राज (कथ्यते) कहा जाता है ।
प्रजा के पालने योग्य कर्तव्यों का सम्पादन करना ही राज्य है।