Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम् अर्थात् जन्म, मरण, सुख, दुःख सब अकेला जीव ही कर्ता और भोगता है । अतः पापकर्मों से बचने का प्रयास है करना चाहिए और पुण्य कार्यों को सतत करते जाना चाहिए । "पापी की हानि"
बीज भोजिनः कुटुम्बिन इव नास्त्यधार्मिकस्यायत्यां किमपि शुभम् 145॥
अन्वयार्थ :- (बीजभोजिनः) बीज को खाने वाले (कुटुम्बिन:) किसान के (इव) समान (अधार्मिकस्य) पापियों-पापी के (आयत्याम) भावि आय में (किम्) कुछ (अपि) भी (शुभम्) पुण्य, कल्याण, (नास्ति) नहीं प्राप्त होता ।।
बीज सहित खेती को खाने वाले किसान को भविष्य में उत्तर काल में कुछ भी श्रेष्ठ फल प्राप्त नहीं हो सकता।
विशेषार्थ:-किसान खेती करता है । फसल पकती है । धान्य घर में आता है । यदि वह इस समस्त धान्य को आमूल-चूल खा जाये, तो उत्तर काल-भविष्य में क्या बोयेगा क्योंकि बीज के लिए तो धान्य रखा ही नहीं है । बीज के अभाव में शरदकाल या बसन्त ऋतु आने पर उसे सुख कहाँ मिल सकता है । नहीं मिलता । इसलिए कहा
पापासक्तस्य नो सौख्यं परलोके प्रजायते ।
बीजाशिहालिकस्येव वसन्ते शरदि स्थिते ।। पापी जीव को पर लोक सुख प्राप्त नहीं होता । जिस प्रकार संसार में बीज सहित उपज का उपभोग करने वाले किसान को आगामी ऋतुओं में सुखानुभव नहीं होता ।।
संसार में जीव के परिणाम ही पुण्य और पाप के हेतू होते हैं और तदनुसार सुख व दुख प्राप्त होता है । आचार्य कहते हैं -
परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्य पापयोः प्राज्ञाः ।
तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ॥23 ।। अर्थात् सुखार्थियों को श्रेष्ठ विधियुत पुण्य का सञ्चय करना चाहिए और पाप का नाश करना चाहिए । शुभ परिणाम बनाये रखने से शभ-पण्यार्जित होता है और अशभ परिणामों से पाप संचित होता है । जिसे जो वाहिए वैसे परिणाम करो । जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। "कारणानुविधायित्वं कार्यम्" यदि हेतू भूत सूत्र शुक्ल है तो वस्त्र भी शुक्ल ही बनेगा और कृष्ण धागा है तो वस्त्र भी कृष्ण ही तैयार होगा । अस्तु पाप का फल दुःख ही होगा। पापी-अज्ञानी विषयान्थ हो जाता है, विवेकहीन कहा जाता हैं । कहते हैं .
अन्धादपि महानन्धों विषयान्धी कृतेक्षणः
चक्षुषान्धो न जानाति विषयान्थो न केनचित् ॥35॥ जन्मांध से भी अधिक महान् अन्धा विषय लोलुपी होता है । क्योंकि नेत्रविहीन तो कृत्याकृत्य देख नहीं पाता,
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