Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
भीति वाक्यामृतम्
लोभ का लक्षण निर्देशः
दानाहेषु स्वधनाप्रदानं परधनग्रहणं वा लोभः ।। अन्वयार्थ :- (दामाहेषु) दान देने के योग्य पुरुषों में (स्वधन) अपना धन (अप्रदानम्) नहीं देना (वा) अथवा (परधनग्रहणम्) दूसरे के धन को चोरी आदि कार करना (सोना) रोग (अस्ति) है ।
सत्पात्रों व दीनों को उनकी योग्यता और अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान सम्मान नहीं देना और वलात् दूसरों का धन हड़पना लोभ कहलाता है ।
विशेषार्थ :- लोभ, लालच, गृद्धता, लुब्धता आदि लोभ के पर्यायवाची हैं । लोभी अपने धन का न्यायपूर्वक विनिमय नहीं करता । उसका चित्त पर धन, पर महिला, परवस्तु पर ही लगा रहता है । फलतः सदा चञ्चल बना रहता है वह किसी भी कार्य में सफल नहीं होता । कहा भी है :
सन्मार्ग यः परित्यज्य पर वित्ताभिलाषुकः ।
खलत्वं वर्द्धते तस्य परिवारश्च नश्यति ।।1।। अर्थ :- समीचीन मार्ग का त्याग कर जो पराये धन की अभिलाषा करता है, उसकी मूर्खता-दृष्टता बढ़ती जाती है और परिवार भी नष्ट हो जाता है । कहावत है "कर भला हो भला, कर बुरा हो बुरा" भलाई का फल भलाई है, बुराई का फल बुराई । यह लोक में देखा ही जाता है । आचार्य कहते हैं -
ऐसी बुद्धि न काम की, लालच जिसे फंसाय ।
तथा समझ वह निंद्य जो, दुष्कृति अर्थ सजाय ॥5॥ अर्थः वह बुद्धिमान और समझदार मन भी लालच में फंस जाय तो वह भी अविचारित कार्यों में फंस जाता है । यदि आप चाहते हैं कि हमारी सम्पत्ति कम न हो तो आप अपने पडौसी की सम्पत्ति धन वैभव को हडपने की चाह मत करो। अत्रिमुनि ने लिखा है कि -
पर स्व हरणं यत्तु तद्धतायः समाचरेत् ।
तृष्णयाऽर्हषु चादानं स लोभ परकीर्तितः ।।1॥ अर्थ :- जब धनाढ्य पुरुष तृष्णा के वशीभूत होकर दूसरों के धन को चोरी वगैरह अन्यायों से ग्रहण करता है, एवं दान करने योग्य पात्रों को दान नहीं देता उसे लोभ कहा जाता है ।
लोभ मूलानि पापानि इत्येतद् यैर्न प्रमाण्यते । स्वयं लोभाद् गुणभ्रंशं पश्यन् पश्यन्तु तेऽपि तम् ।।6॥
श्लो.सं. अर्थ :- पापों की जड़ लोभ है "लोभ पाप का बाप बखाना' कहा है, इस सूक्ति को जो प्रमाण नहीं ता
Kh