Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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- नीति वाक्यामृतम् अन्याश्रितां च यो नारी कुमारी वा निषेवते ।
तस्य कामः प्रदुःखाय बन्धाय मरणाय च ।।1। अर्थ :- जो पुरुष स्त्री और नाक सेन करता है, उसकी यह भोग लिप्सा अत्यन्त दुःख, बन्धन, तथा मरण उत्पन्न करती है ।
धर्म परम्परानुसार मोक्षमार्ग का हेतू भूत गार्हस्थ धर्म को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए सन्तोष पूर्वक स्व पत्नी का भोग करना उचित है । नीतिज्ञ मनीषी साधु-सन्त, साध्वी उत्पन्न करने के उद्देश्य से काम सेवन करते हैं । यह शिष्टाचार और शोभनीय समाज व्यवस्था है । कुलीन पुरुषों को धर्मानुकूल आचरण करना चाहिए । अब मान का लक्षण करते हैं
अविचार्य परस्यात्मनो वापाय हेतुः क्रोधः ।।३॥ अन्वयार्थ :- (परस्य) दूसरे की शक्ति का (वा) अथवा (आत्मनः) अपनी योग्यता को (अविचाय) विचार 1 कर (क्रोधः) क्रोध करना (आत्मनः) स्वयं के (अपाय:) विनाश का (हेतू:) कारण (अस्ति) है !
जो मूर्ख पुरुष स्वयं की और जिस पर कुपित होता है उसकी सामथ्य का विचार न करता हुआ कोप करता है वह अपना ही विनाश करने का उद्योग करता है ।
विशेषार्थ :- सामान्यतः कोपादि कषाय सभी आत्मा को कष्टदायी है । लौकिक व्यवहार व्यवस्था हेतृ भी क्रोध करना स्व- पर की योग्यतानुसार नहीं है तो वह स्वयं का ही घात करने वाला सिद्ध होता है । कहा भी है :
कोप करि मरे और मारे, जाय जेल खाने में जो कहूँ निबल भये हाथ पांव टूट गये
ठौर ठौर पट्टी बंधी पडे सफाखाने में अर्थात् कमजोर पर क्रोध किया तो उसे कोपांध हो मार डालता है और स्वयं भी बध-बन्धन सहता है । कमजोर होने पर हाथ-पैरों की हड्डियाँ-संधियाँ टूट-फूट जाती हैं, यत्र-तत्र अंगों में पट्टियां बंध जाती हैं । दुःख से व्याकुल हो पीड़ा सहता है । निन्दा का पात्र होता है और पर लोक में भी दुर्गति पाता है । नीतिकार भागरि ने भी कहा है :
अविचार्यात्मनः शक्ति परस्य च समुत्सुकः ।
यः कोपं याति भूपालः सविनाशं प्रगच्छति ॥ अर्थ :- जो नृपति अपनी और शत्रु की शक्ति को बिना सोचे-समझे क्रोध करता है वह अवश्य नष्ट होता
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राज शासन निपुण, न्यायप्रिय एवं राज्यवृद्धि के इच्छुक भूपाल को अप्राप्य राज्य की प्राप्ति, प्राप्त की रक्षा, और रक्षित की वृद्धि करने के लिए तथा प्रजा पीडक कण्टकों-शत्रुओं को परास्त कर वश करने के लिए न्यायपूर्वक