Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
N लोभी के धन की अवस्था
कदर्यस्यार्थ संग्रहो राजदायाद तस्कराणामन्यतमस्य निधिः ॥11॥ अन्वयार्थ :- (कदर्यस्य) कंजूस का (अर्थ) धन (संग्रहः) सञ्चय (राजादायादतस्कराणाम्) नृपति, कुटुम्बी व चोर (अन्यतमस्य) किसी एक का (निधि:) खजाना (भवति) होता है ।
लुब्धक के अर्जित धन का भूप, सम्बन्धी व चोर इनमें से कोई एक मालिक होता है ।
विशेषार्थ :- लुब्धक के धन को अवसर पाकर राजा हड़प लेता है, अथवा कुटुम्बीजन हिस्सा पांति कर खा पी जाते हैं, या तस्कर हरण करके ले जाते हैं । वल्लभदेवजी ने लिखा है -
दानं भोगों नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुंक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति । अर्थ :- पात्रों को दान का, स्वयं उपभोग करना और पास होना ये तीन अवस्थाएँ धन की होती हैं । जो व्यक्ति कभी भी न तो सत्पात्र को दान देता है, और न सम्यक रूप से परिवार व अपना ही भरण-पोषण है उसके धन की तीसरी गति (नाश) ही होती है । आचार्य कहते हैं -
भू पर ऐसे भी कुछ लोग, वैभव का जो करें न भोग ।
और न देवें पर को दान, लक्ष्मी को वे रोग समान ।।6।। अर्थात् संसार में बहुत से ऐसे लोग हैं जो वैभव को संचय करके उसका न तो स्वयं भोग करते हैं और न उदारतापूर्वक योग्य पुरुषों को ही भोगने देते हैं वे अपनी सम्पत्ति को रोग स्वरूप हैं ।
सारांश यह है कि लोभ जीव का घातक है ! लोभी का यश व नाम शेष नहीं रहता । वह मात्र निन्दा और घृणा का पात्र हो जाता है । इसलिए लोभ का सर्वथा त्याग करना चाहिए । लोभी के सभी पाप मित्र बनकर उसे दुर्गति का पात्र बना देते हैं । निर्लोभी सर्वत्र आदर पाता है। कहा भी है -
दूर दष्टि से हीन का, तृष्णा से संहार ।
निर्लोभी की श्रेष्ठता, जीते सब संसार ।।10॥ अर्थात् दूरदर्शिताहीन लालच नाश का कारण होता है, पर ओ, यह कहता है कि मुझे किसी वस्तु की आकांक्षा ही नहीं, उस तृष्णा विजयी की 'महत्ता' सर्वविजयी होती है । अतः लोभ त्याग शौचगुण धारण करना चाहिए ।
परम् पूज्य विश्ववंद्य चारित्र चक्रवर्ती मुनि कुञ्जर सम्राट् महानतपस्वी वीतरागी, दिगम्बराचार्य श्री 108 आदिसागर जी अंकलीकर के पट्टाधीश आचार्य शिरोमणि समाधि सम्राट श्री महावीर कीर्ति जी महाराज की संघर एवं श्री.प.पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य विमल सागर जी की शिष्या, ज्ञानचिन्तामणि, सिद्धान्तविशारदा प्रथम गणिनी आर्यिका विजयामती जी द्वारा विजयोदय हिन्दी टीका का द्वितीय परिच्छेद प. पूज्य सिद्धान्त चक्रवर्ती अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश श्री आचार्य सन्मतिसागर जी महाराज के चरण सानिध्य में समाप्त किया।
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