Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति कल्यामृतम् ।
N तानात्विक और मूलहर
नादात्विक मूलहरयोरायत्यां नास्ति कल्याणम् ||10॥ अन्वयार्थ :- (तादात्विक मूलहरयोः) तादात्विक-प्रमादी और मूलहर का (आयात्यां) भविष्य काल में (कल्याणम्) कल्याण (नास्ति) नहीं होता है :
परार्जित धन का भोग करने वाले और आलसी व्यक्तियों का कल्याण नहीं होता, उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है।
विशेषार्थ :- पिण्डोपजीवी कुछ समय सुखानुभव कर दुर्भागी बन जाता है । इसी प्रकार प्रमादी की सम्पदा भी उससे रुष्ट हो जाती है । आचार्य कहते हैं -
निज गेहे कृतो येन विपुलस्त्वर्थसंग्रह : व्यये किन्तु कदर्योऽस्ति ततो मृतवदेव सः ।।1॥
कु.का.कुन्दकुन्दकृत अर्थ :- जिस कृपण ने अपने गृहांगण में ढेर की ढेर सम्पत्ति जमा कर रखी है, परन्तु उसका उपयोग नहीं करता उसमें और शव (मुर्दे) में कोई अन्तर नहीं है । क्योंकि वह उससे लाभान्वित नहीं होता । कंजूस का धन स्व और पर दोनों के लिए खतरनाक है । कहा भी है
धर्माधर्मावनादृत्य बुभुक्षाञ्च विषह्य यः । सञ्चीयते निधिनित्यं परेषां म हितावहः ।।७॥
कु.का. अर्थ :- धर्माधर्म का विचार न कर और स्वयं को भूखा मार कर जो धन जमा किया जाता है, वह केवल दूसरों के ही काम आता है । और भी कहते हैं -
कौन अर्थ का वह है कोष, नहीं गुणी को जिससे तोष । दुर्गुण की है एक खदान, ग्राम वृक्ष वह विष फलवान' ॥8॥
अर्थ :- मानव वह सम्पादित सम्पदा, जिससे धर्म-दान नहीं किया जाता और विद्वानों को सन्तोष प्राप्त नहीं होता, वह ग्राम के मध्य विषवक्ष फलने के समान महान् अनर्थकारी है । नीतिकार कपिपुत्र ने भी कहा है .
आगमाभ्यधिकं कुर्यायो व्ययं यश्च भक्षति ।
पूर्वजोपार्जितं नान्यदर्जयेच्च स सीदति ।।।। अर्थः जो व्यक्ति अपनी आमदनी से अधिक खर्च करता है एवं पूर्वजों के कमाये अर्जित धन का उपभोग करता है, भक्षण करता है और नवीन धन तनिक भी नहीं कमाता वह अवश्य दुःखी रहता है । अभिप्राय है कि सुखच्छुआ को स्वयं न्यायपूर्वक धनार्जन करना चाहिए ।