Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
अर्थात् जो शाब्दिक शास्त्रज्ञ होकर उसमें विहित सत्कर्मों को नहीं करता तो उसका ज्ञान विधवा के श्रृंगारवत् । व्यर्थ जाता है।
सदाचारी, स्वाभिमानी कम पढ़ा, मूर्ख है तो भी विद्वानों में आदर पाता है । यथा बिबुधों में यदि धैर्य धर रहे मूर्ख चुप-चाप । तो उसको भी यह जगत, गिनता बुध ही आप ॥७॥ कु.का.
अर्थ :- विद्वद जनों के मध्य मूर्ख-अनभिज्ञ व्यक्ति भी यदि सभ्यता से मौन धारण कर बैठता है तो वह भी विद्वान मान लिया जाता है । लोग उसे भी शास्त्रज्ञ मानेंगे। सारांश यह है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सम्यग्ज्ञान प्रास करना चाहिए और सम्यग्ज्ञानानन्तर सम्यक् चारित्र होना चाहिए। तारतम्य रूप से हीनाधिक रहे तो क्षति नहीं किन्तु सबका समन्वय अनिवार्य है । परोपदेशियों की सुलभता "सुलभः खलु कथक इव परस्य धर्मोपदेशे लोकः ॥28॥"
अन्वयार्थ :- (परस्य) दूसरों को (धर्मोपदेशे) धर्मोपदेश देने में संलग्न (लोकः) पुरुष (खलु) निश्चय से (कथक) कथावाचकों के (इव) समान (सुलभः) सरलता से मिल जाते हैं ।
कथावाचकों की भाँति दूसरों को धर्मोपदेश देने वाले संसार में सुलभ हैं ।
विशेषार्थ :- कहावत है "परोपदेशे पाण्डित्यम् ।" दूसरों को धर्मोपदेश देने वाले पण्डित संसार में सुलभ हैं । स्वयं धर्माचरण पालन करना महान दुर्लभ है । आचार्य श्री गुणभद्रस्वामी ने सुन्दर युक्ति से इस तथ्य को समझाया
जनाघनाश्च वाचालाः सुलभाः स्युर्व थोत्थिताः । दुर्लभा द्वन्तरास्तेि जगदभ्युजिहीर्षवः ॥4॥
अनु. अर्थात् संसार में बड-बड प्रलाप करने वाले और जल विहीन घडघडाहट करने वाले बादलों का समूह सर्वत्र सुलभता से जितना चाहें उतना मिल सकता है, परन्तु गम्भीर विचारक मनीषी और जग कल्याण करने वाले-वरसा करने वाले मेघसमूह अति दुर्लभ हैं । लोक में कहावत है -
शिक्षकाः वह वः सन्ति शिष्यवित्तापहारकाः
दुर्लभाः शिक्षका प्रायः शिष्यचित्तापहारकाः ।। संसार में उदरपूर्ति के लिए शिष्यों को दिशाभ्रम करने वाले विद्वान पण्डितों की भरमार है परन्तु शिष्यों को सरल-नैतिकता का उपदेश कर सन्मार्गारुढ करने वाले विद्वान अति दुर्लभ और कठिन हैं । वाल्मीकि विद्वान ने भी कहा है -
सुलभा धर्मवक्तारोयथापुस्तक वाचकाः । ये कुर्वन्ति स्वयं धर्म विरलास्ते महीतले ॥