Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम् ।
अर्थात् उद्यम करने से कार्यों की सिद्धि होती है, मात्र सोचते रहने से नहीं । सिंह पशुओं का राजा है, महा बलवान भी है, पराक्रमी भी है परन्तु वह भी यदि यह मानकर कि "मेरी शक्ति ही मेरा पेट भर देगी" सोता रहे तो क्या स्वयं मृग-पशु उसके मुख में आकर मरेंगे ? नहीं । वह स्वयं शिकार करेगा तभी उसे मांस मिलेगा और क्षुधा शान्त होगी । इसी प्रकार जो व्यक्ति जो कुछ प्राप्त करना चाहता है उसे उसकी प्राप्ति की युक्तियों के साथ-साथ प्रयत्न । भी करना ही होगा । उदाहरणार्थ अश्वारोही बनने के अभिलाषी को घोड़े पर चढना होगा, उसकी कला सीखनी ही होगी, तभी इच्छापूर्ति हो सकेगी । आलसी पर राजकृपा हो तो भी उसका विकास होना संभव नहीं है । कुरल में कहा
आलस्य निरतोर्लोकः कृपां लब्ध्वापि भूपतेः ।।
कर्तुं समुन्नतिं नैव शक्नोति जगतीतले ।।6॥ - अर्थ :- आलस्य पीड़ित मनुष्य राजानुकम्पा प्राप्त करने पर भी भूतल पर उत्थान करने में समर्थ नहीं हो सकता है । अपवित्र वायु के समान प्रमाद को बताया है ।
देखो है आलस्य भी, दूषित वायु प्रचण्ड ।
झोके से नृपवंश की, बुझती ज्योति अखण्ड ।।1॥ अर्थ :- आलस्य रूपी अपवित्र वायु के झोके से राजवंश की अखण्ड ज्योति अस्त हो जायेगी । कुन्दकुन्द स्वामी तो आलस्य को हत्यारा कहते हैं -
हत्यारे आलस्य की जिसके मन में प्यास
देखेगा मतिमन्द वह, जीवित ही कुल नाश ।।3 ॥ अर्थ :- आलस्य-प्रमाद हत्यारा है, इसकी चाह-अभिलाषा जिसको है वह आलसी है, मन्दबुद्धि है, उसके लघु जीवन काल में ही उसका ही नहीं उसके कुल का सर्वनाश हो जाता है ।
जो व्यक्ति अपने हाथों से उद्यमशील होकर सत्कार्यों को नहीं करते, वह अपनी गृहस्थी को क्षीण करता हुआ संकट में डाल देता है । करल में आलसियों की चार नौकाएँ बतलाई हैं यथा -
कालस्य यापनं, निद्रा शैथिल्यं विस्मृतिस्तथा ।
उत्सवस्य महानावः, सन्त्येता हतभागिनः ।।5।। अर्थ :- प्रमादवश जो व्यक्ति कार्य करने में टालमटोल करते हैं, निद्रा लेते हैं, शिथिलता प्रदर्शित करते हैं, व भूल जाते हैं उनके लिए ये चारों बातें सच्छिद्र नौकाएँ हैं । इन पर सवार हो अपने को संसार सागर में इबाते
आलसी का सारा परिवार शत्रुओं का शिकार बन जाता है । यथा कहा है -
जो कुटुम्ब आलस्य का यहाँ बने आवास । शत्रुकरों में शीय मह, पड़ता बिना प्रयास ।।8।।
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