Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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-नीति वाक्यामृतम् । सुलभा पाप रक्तस्य लोकाः पापोपदेशकाः ।
स्वयं कृत्वा च ये पापं तदर्थ प्रेरयन्ति च ।। अर्थ :- पापियों को पाप का उपदेश देने वाले लोग बहुत हैं । ये पापी स्वयं भी कु-कर्म करते हैं और अन्यों को भी प्रेरित करते हैं । अतः आत्महितैषियों को इनसे सावधान रहना चाहिए । कुरल में दुर्जन-धूर्त का वर्णन किया
ऋषियों का जो वेशधर बनता कातरदास ।
सिंह खाल को ओढकर चरता है वह घास ।। अर्थ :- जो कायर पुरुष तपस्वी के समान तेजस्वी आकृति बनाकर रखता है वह उस गधे के समान है जो शेर की खाल-चर्म ओढ कर घास चरता है । भूलकर भी दूसरे के सर्वनाश का विचार नहीं करना चाहिए क्योंकि न्याय उसके विनाश की युक्ति सोचता है जो दूसरे के साथ बुराई करना सोचता है । कहा है -
मत सोचो तुम भूल कर पर का नाश कदैव । कारण उसके नाश को सोचे न्याय सदैव ।।4॥
अर्थात् न्याय, अन्याय को किस प्रकार सहन कर सकता है ? पापी दुर्जन का स्वरूप -
मुखं पद्मदलाकारं वाचा चन्दन शीतला
हृदयं कर्तरी तुल्यं त्रिविधं धूर्तलक्षणम् ।।23 ।। अर्थ :- दुर्जनों का मुख कमलदल के समान मनोहर दिखाई देता है, वचन चन्दन के समान शीतल होते हैं परन्तु हृदय कैंची के सदृश भेदन-छेदन करने वाला होता है । ऐसे धूर्तों के मित्र धूर्त ही होंगे । पापियों के पीछे पाप ही घूमता है -
पाप फिरें पीछे लगे, छाया जैसे साथ
सर्वनाश के अन्त में, करते जीव अनाथ ॥ जिस प्रकार छाया मनुष्य को कभी नहीं छोड़ती, बल्कि जहाँ-जहाँ वह जाता है वहीं उसके पीछे लगी रहती है, बस ठीक इसी प्रकार पाप कर्म भी पापी के पीछे-पीछे जाते हैं और उसका सर्वनाश कर देते हैं । अतः कष्टों से बचना है तो पाप और पापियों से रक्षा करो । कहा भी है
रक्षित वह है सर्वथा, विपदा उसकी अस्त पाप हेतु छोड़े नहीं, जो नर मार्ग प्रशस्त ०॥
कुरल. "पाप का निषेध करते हैं"
कण्ठगतैरपि प्राण नाशुभं कर्म समाचरणीयं कुशलमतिभिः 189॥ __ अन्वयार्थ :- (प्राणैः) प्राणों के (कण्ठगतैः) प्राणोत्सर्जन का समय आने पर (अपि) भी (अशुभं) पापरू
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