Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
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प्रमाद के दोषों का विचार कर उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है । जो इस आलस्य भूत का त्याग कर उत्साहित हो कार्य करता है, उसके आने वाले अनेकों क्रूर संकट भी दूर पलायित हो जाते हैं । कहा भी है
अहो मनुज आलस्यमय त्यागे जब ही पाप । आते संकट क्रूर भी, ठिटक जांय तब आप ।।। कर्मलीन हो भूप यदि, करे न रञ्च प्रमाद । छत्र तले वसुधा वसे, नपी त्रिविक्रम पाद ।।10।।
कुरल
अर्थात् किसी व्यक्ति पर यदि आकस्मिक संकट आ जाय और वह प्रमाद त्याग उत्साह से उसका सामना करने को डट जाय तो वह आने वाले विपत्तिरूपी घन दूर से ही भागने लगते हैं ।।
जो नृप आलस्य का सर्वथा परिहार करता है, वह एक न एक दिन त्रिविक्रम से नंपी (विष्णु कुमार से मापी) सर्वभूमि का अधिपति हो जाता है । अत: जीवन का सर्वाङ्गीण विकास चाहने वालों को आलस्य का दूर ही से त्याग कर देना चाहिए। "धर्मफल योहा अभी यार में प्रयु का वर्णन"
धर्मफलमनुभवतोऽप्य धर्मानुष्ठानमनात्पज्ञस्य ॥35॥
अन्वयार्थ :- (अनात्मज्ञस्य) आत्मस्वरूप को नहीं जानने वाले का (धर्मफलानुभव) धर्म का फल भोग (अपि) भी (अधर्मानुष्ठानम्) पापाचरण करना (मूर्खत्वं) मूर्खपना है ।
जो मनुष्य धर्म के फल-मनुष्य पर्याय, उच्चकुल, धन-ऐश्वर्य, दीर्घायु आदि का उपभोग करता हुआ भी यदि उसे न समझ कर पापाचरण में प्रवृत्ति करता है तो वह महामूर्ख ही है ।
विशेषार्थ :- पूर्जित पुण्य से प्राप्त, बुद्धि कौशलादि को मूर्ख नहीं समझ पाता । फलत: धन-सम्पत्ति, बुद्धि का दुरुपयोग करने लगता है । विद्वान सौनक ने कहा है -
अन्य जन्मकृताद्धर्मात् सौख्यं संजायते नृणाम् ।
तद्विजै आयते नाहस्तेन ते पापसेवकाः ।। अर्थात् - जो कुछ मनुष्यों को पूर्वकृत पुण्य का फल इन्द्रिय जन्य सुख सम्पदा-बुद्धि-कौशलादि प्राप्त होते हैं, उनके रहस्य को विद्वान-ज्ञानी जन ही समझते हैं । और पुनः धर्मार्जन करने में प्रवृत्त होते हैं (अज्ञानी-मूर्खजन इसे नहीं समझते-अतएव वे अहंकार में फंस दुर्व्यसनों में फंस जाते हैं । शास्त्रकारों ने भी कहा है -
स मूर्खः स जडः सोऽज्ञः स पशुश्च पशोरपि । योऽश्नन्नपि फलं धर्माद्धर्मे भवति मन्दधीः ॥ स विद्वान् स महाप्राज्ञः स धीमान् स च पण्डितः । यः स्वतो वान्यतो वापि नाधर्माय समीहते ॥2॥
यश.ति. सोमदेवकृत
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