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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् ः एक अध्ययन
धर्मभूषण के गुरु और द्वितीय हुम्मच शिलालेख के लेखक । वरांग़चरित के रचयिता इन दोनों में प्रथम जान पड़ते हैं । डा० दरबारी लाल कोठिया ने धर्मभूषण को सायणाचार्य का समकालीन मानते हुये उनका समय चौदहवीं शती का उत्तरार्द्ध तथा पन्द्रहवीं शती का प्रथम पाद माना है।' उनके गुरु होने से इनका समय चौदहवीं शताब्दी का मध्य ठहरता है ।
६०. कुमारपाल चरित' : (जय सिंह सूरि )
यह दस सर्गात्मक महाकाव्य है। इसमें गुजरात के राजा कुमारपाल के जीवनचरित्र और उनके धार्मिक कार्यों का वर्णन है । इसका आधार हेमचन्द्राचार्य का कुमारपालचरित (द्वयाश्रय काव्य ) जान पड़ता है
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६१. जिनयुगल चरित : ( जय सिंह सूरि )
इसमें १० प्रस्ताव हैं । प्रथम प्रस्ताव से छठे प्रस्ताव तक ३१०० श्लोक प्रमाण हैं । इसमें ऋषभदेव का चरित्र वर्णित है । तथागच्छीय ज्ञान भण्डार जैसलमेर में इसकी ताड़पत्रीय प्रति उपलब्ध है ।
रचयिता : रचनाकाल
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उपर्युक्त दोनों चरितों के रचयिता जयसिंहसूरि हैं। ये कृष्णात्रिगच्छीय महेन्द्रसूरि के शिष्य थे । इनकी गुरु परम्परा इस प्रकार है - जयसिंहसूरि ( प्रथम ) प्रसन्नचन्द्र महेन्द्रसूरि जयसिंहसूरि (द्वितीय) → जयसिंहसूरि (तृतीय) इनमें जयसिंह सूरि (तृतीय) ही प्रकृत कुमारपाल तथा जिनयुगल चरित के रचयिता थे । इनके गुरु महेन्द्रसूरि बादशाह मुहम्मदशाह द्वारा सम्मानित थे । कुमारपाल चरित की रचना इन्होंने वि० सं० १४२२ (१३६५ ई०) में की थी।
६२. वर्धमानचरित : (भट्टारक पद्मनन्दि )
वर्धमानचरित काव्य में ३०० पद्य हैं। इसमें भगवान महावीर का जीवन चरित्र निबद्ध है । रचयिता : रचनाकाल
वर्धमानचरित काव्य के रचयिता भट्टारक पद्मनन्दि हैं। ये प्रभाचन्द्र के शिष्य थे । प्रभाचन्द्र का पट्टाभिषेक १२५३ ई० में रत्नकीर्ति के पट्ट पर हुआ था। प्रभाचन्द्र ७४ वर्ष तक पट्टाधीश रहे। प्रभाचन्द्र ने ही अपने पट्ट पर इन्हें १३२७ ई० में नियुक्त किया था । एक शिलालेख के अनुसार भट्टारक पद्मनन्दि ने १३९३ ई० में मूर्तिप्रतिष्ठा कराई थी ।' डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इनका समय ईसा की १४ वीं शताब्दी माना है।
१. न्यायदीपिका प्रस्तावना, पृ० ९९-१००
२.हीरालाल हंसराज जामनगर, १९१५ ई० तथा गौडी जी जैन उपाश्रय पायधुनि बम्बई, १९२६ ई० में प्रकाशित
३.श्री अगरचन्द्र नाहटा द्वारा लिखित (महावीर संबन्धी एक अज्ञात संस्कृत चरित्र, लेख, श्रमण वर्ष २६ अंक १-२ नवं० दिसं०
७४, पृ०५३-५६
४. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग - ६, पृ० २२५ ६. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृ० ३२३, भाग-३
५. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २३९, पृ० २३६