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मगाथयैकया निदर्शयति” ।
श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन
तथा एक और व्याख्याकार श्री जिनवर्धनसूरि का यह उल्लेख है :" तस्य सोमस्य वाहड इति नाम्ना तनय आसीत् ”
जिसकी पुष्टि वाग्भट के ही तीसरे व्याख्याता श्री क्षेमहंसमणि ने इस प्रकार से की है :“ तस्य सोमस्य वाहड इति तनय आसीत् ”
यह सब यही सिद्ध करता है कि वाग्भट का प्राकृत नाम वाहड रह चुका है और वाग्भट के पिता का नाम " सोम” था ।
निवास स्थान
वाग्भट का निवास स्थान अणहिल्लपट्टन (अनहिलवाड ) प्रतीत होता है । वाग्भट ने अपनी नगर भूमि का इस प्रकार स्मरण किया है :
अणहिल्लपाटकं पुरमवनिपतिः कर्णदेवनृपसूनुः । श्री कलशनामधेयः करी च रत्नानि जगतीह ।
अर्थात् जगतीतल के प्रत्यक्ष दृश्यमान "रत्नत्रय” में प्रथम रत्न अणहिल्लपाटन नामक नगर रत्न । द्वितीय रत्न है चालुक्य श्री जयसिंह देव नामक राजरत्न और तृतीय रत्न है श्री
कलशनामक गजरल ।
अतः इससे अनुमान किया जा सकता है कि वाग्भट का अनहिलवाड के प्रति प्रगाढ़ स्नेह एवं हृदयासक्ति का ही परिचायक है ।
वाग्भट और चालुक्य श्री जयसिंहदेव का सम्बन्ध तो सिद्ध ही है, क्योंकि वाग्भटालंकार की कतिपय सूक्तियाँ श्री जयसिंहदेव की स्मृति और प्रशस्ति का ही अभिप्राय रखती हैंउदाहरण के लिए यह सूक्ति- “इन्द्रेण किं यदि स कर्णनरेन्द्रसूनुरैरावतेन किमहो यदि तदद्वियेन्द्रः। दग्भोलिनाप्यलमलं यदि तत्प्रतापः स्वर्गोप्ययं ननु मुधा यदि तत्पुरी सा ।। " ३
यह सूक्ति श्री कर्णदेव के पुत्र चालुक्य श्री जयसिंहदेव को इन्द्र के समान धर्म बताती हुई वाग्भट के राजप्रेम की सूचना दे रही है। इसी प्रकार यह सूक्ति भी
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जगदात्मकीर्तिशुभ्रं जनयन्नद्दामद्योमदोः परिधिः ।
जगतिप्रतापपूषा जयसिंहः क्ष्माभृदधिनाथः । ।"
इससे चालुक्य श्री जयसिंहदेव का नाम संकीर्तन स्पष्ट है । वाग्भट और समसामयिक चालुक्य दरबार के पारस्परिक सम्बन्ध का स्पष्ट प्रभाव हैं ।
१. वाग्भटालंकार भूमिका, पृ०-२ ३. वही, श्लोक सं० ७५
२. वाग्भटालंकार चतुर्थ परिच्छेद, श्लोक सं० १३१ ४. वही, श्लोक सं० ४५