________________
१३२
श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन और विद्वानों द्वारा सम्मानित भी है । यद्यपि पश्चाद्वर्ती आचार्यों ने महाकाव्य के लक्षणों में कोई न कोई नई बात जरूर जोड़ी है, परन्तु भामह के लक्षणों में कोई भी आवश्यक तत्त्व छूट नहीं पाया है।
आचार्य दण्डी ने अपने महाकाव्य के लक्षण में भामह के उक्त निकायों का समावेश करते हुये आरंभ में मंगलाचरण (आशीर्वादात्मक, नमस्कारात्मक या वस्तुनिर्देशात्मक) के होने का तथा आख्यान के ऐतिहासिक अथवा सज्जनाश्रित होने का उल्लेख किया है । उन्होंने महाकाव्य के लक्षण में प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द तथा सर्गान्त में छन्द परिवर्तन का निर्देश करते हुए अंगीरस के रूप में श्रृंगार अथवा वीर को ही मान्यता दी है । दण्डी का कथन है कि महाकाव्य में प्रतिनायक के भी उच्च वंश, शौर्य, विद्या आदि की प्रशंसा करनी चाहिए। क्योंकि इससे उसके विजय प्राप्त करने वाले नायक का उत्कर्ष बढ़ता है।
आचार्य रूद्रट ने अपने महाकाव्य के लक्षण को पर्याप्त विस्तार के साथ दिया है । अपने लक्षण में उन्होंने भारतीय संस्कृति के भण्डार रामायण और महाभारत को भी महाकाव्य की कोटि में लाने का संस्तुत्य प्रयास किया है । उनकी एक और अपनी विशेषता यह है कि उन्होंने मूल कथानक के मध्य में अन्य अवान्तर कथानकों के समावेश का भी निर्देश किया है । शेष बातों में रूद्रट ने भामह और दण्डी का ही अनुसरण किया है ।
आचार्य हेमचन्द्र ने भी महाकाव्य के लक्षण में अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का ही अनुसरण किया है । परन्तु यह उनकी अपनी विशेषता है कि उन्होंने बहुत ही कम शब्दों में सूत्रात्मक शैली में महाकाव्य के समस्त तत्त्वों का समावेश कर दिया है।
आचार्य हेमचन्द्र ने शब्द वैचित्र्य को महाकाव्य का आवश्यक तत्त्व मानते हुये उसके अन्तर्गत दुष्कर चित्रालंकार एवं अन्य शब्दावलियों के ग्रहण के साथ ही काव्य के अन्त में स्वाभिप्राय, स्वनाम, इष्ट नाम अथवा मंगल के अंकित होने का समावेश किया है। इस प्रकार इनके महाकाव्य के लक्षण में नये तत्वों का समावेश हुआ है।
अन्य आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट महाकाव्य के लक्षणों में कोई नवीन उद्घाटना दृष्टिगोचर नहीं होती है । अतएव केवल आचार्य विश्वनाथ के महाकाव्य के लक्षण का ही उल्लेख करना समीचीन होगा । क्योंकि विश्वनाथ का लक्षण सर्वांग एवं विद्वानों द्वारा मान्य है। ।
जिसमें सर्गों का निबन्धन हो वह महाकाव्य कहलाता है । इसका धीरोदात्त नायक के १. काव्यादर्श,१/१४-२२
२. द्र० काव्यालंकार,१६/२-१९ ३. छन्दोविशेषरचितं प्रायः संस्कृतादिभाषानिबद्धभिनन्त्यवृत्तैर्यथासंख्यं सदिभिनिर्मितं सुश्लिष्टमुखप्रविमुखगर्भनिर्वहण
सन्धिसुन्दरं शब्दार्थवैचित्र्योपेतं महाकाव्यम् ।। - काव्यानुशासन, अध्याय ८, पृ० ३९५ शब्दवैचित्र्यं यथा -असंक्षिप्तमस्थत्वम् अविषमबन्धत्वम्, अनतिविस्तीर्णपरस्परनिबद्धसदित्वम्, आशीनमस्कारवस्तु निर्देशोपक्रमत्वम्, वक्तव्यार्थतत्यतिज्ञानतत्प्रयोजनोपन्यास कविप्रशंसासुजनदुर्जनस्वरूपवदादिवाक्यत्वम्, दुष्करचित्रादि सर्गत्वम. स्वाभिप्रायस्वनामेष्टनाममंगलांकितसमाप्तित्वम् । - काव्यानुशासन, अध्याय ८, पृ० ४०१