________________
२०८
श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन
उल्लेख नेमिनिर्वाण में नहीं हुआ, किन्तु “पुंसवनादि पद में आदि पद से इसी संस्कार का ग्रहण होता है, क्योंकि पुंसवन संस्कार के बाद यही संस्कार होता है ।
(३) पुत्रोत्पत्ति
:
गर्भोत्तर कालीन संस्कारों में सबसे प्रथम और यह संस्कार अति महत्त्वपूर्ण होता है । पुत्रोत्पत्ति के बाद अनेक तरह के उत्सव मनाये जाते हैं । राजघरानों में इसका अधिक प्रचलन है । इस अवसर पर राजा बहुमूल्य रत्नाभूषण और आभूषणों का दान करते हैं । दुःखियों में धन बांटते हैं और कैदियों को कैद से मुक्त कर देते हैं ।
राजा समुद्रविजय के यहाँ पत्नी के गर्भावस्था के नौ महीनों तक रत्नों की वर्षा हुई। श्रावण का महीना आ जाने पर शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन रानी ने सम्पूर्ण लोकों को आनन्दित करने वाले पुत्र को उत्पन्न किया ।२
इसके जन्म के समय देवताओं ने देदीप्य मान महोत्सव किया । जन्म के समय पारितोषिक मांगने के लिए मनुष्यों के समूह तथा संभ्रान्त लोगों के भवनों में शंखध्वनि व्याप्त हुई ।
(४) नामकरण संस्कार :
गर्भोत्तर कालीन संस्कारों में पुत्रोत्पत्ति के उपरान्त होने वाले इस संस्कार का अत्यन्त महत्त्व है । सूतक शुद्धि के बाद यह संस्कार मनाया जाता है। इसके लिए शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में शिशु का नाम रखा जाता है । "
(५) चौलकर्म संस्कार :
बालक के विद्यारम्भ के पूर्व चौलकर्म संस्कार किया जाता हैं । चौलकर्म संस्कार में बालक के शरीर में सौन्दर्य को निखारने के लिए बालक का मुंडन आवश्यक माना जाता है । इसका विधान नामकरण के समान ही है ।
(६) विद्यारम्भ :
यह मानव-जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्कार होता है। क्योंकि यह ज्ञानार्जन की
नींव है।
(७) दारकर्म :
मनुष्य जीवन में विवाह या दारकर्म का अति महत्त्व है । आचार्य कौटिल्य का कहना है कि संसार के समस्त व्यवहार विवाह पूर्व होते हैं ।" यह संस्कार (विवाह) अध्ययन के बाद होता है ।
१. नेमिनिर्वाण, ४/११
३. वही, ४/१७
५. “विवाहपूर्वोव्यवहारः ।” कौटिल्य अर्थशास्त्र, ३/२१
२. वही, ४/१३
४. वही, ४/६१-६२