Book Title: Nemi Nirvanam Ek Adhyayan
Author(s): Aniruddhakumar Sharma
Publisher: Sanmati Prakashan

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Page 239
________________ उपसंहार २२५ उदाहरण, सहोक्ति, विरोधाभास, आदि अलंकारों का आह्लादक प्रयोग किया है । यद्यपि सम्पूर्ण नेमिनिर्वाण महाकाव्य में अलंकारों का सर्वत्र प्रयोग हुआ है किन्तु अलंकारों के कारण कहीं भी भावों में आवरण उत्पन्न नहीं हुआ है। साहित्य में शैली के लिए रीति या मार्ग शब्द व्यवहत होता है । प्रत्येक कवि अपने भावों की अभिव्यक्ति अपने ढंग से करता है । शैली का सम्बन्ध रचनाकार के व्यक्तित्व से ोता है। साहित्य में वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली और लाटी इन चार रीतियों का कवियों ने आश्रय लिया है। महाकवि वाग्भट ने अपने नेमिनिर्वाण महाकाव्य में प्रधानतया वैदी रीति का आश्रय लिया है, किन्तु वर्ण्य विषय के आधार पर अन्य रीतियों भी उनके काव्य में दृष्टिगत होती हैं । वाग्भट ने प्रसाद गुण का अत्यधिक प्रयोग किया है, किन्तु माधुर्य और ओजगुण भी यथास्थान नेमिनिर्वाण में प्रयुक्त हुये हैं। प्रकृति-चित्रण काव्य का आवश्यक एवं अपरिहार्य तत्त्व है । नेमिनिर्वाण में प्रकृति के आलंबन एवं उद्दीपन दोनों ही रूपों का चित्रण हुआ है। वह कहीं शान्त वातावरण में निर्वेद का संचार करता हुआ दिखलाई पड़ता है तो कहीं मादक वातावरण में श्रृंगार का उद्दीपन करता है । कालिदासादि महाकवियों के समान नेमिनिर्वाण महाकाव्य में भी देश. नगर, प्रकृति, सूर्योदय, प्रातःकाल, चन्द्रमा, पर्वत मन्दिर, स्त्री-पुरुष, पुत्रजन्म, जलक्रीड़ा, मदिरापान, रतिक्रीड़ा आदि का मनोरम वर्णन हुआ है । इन वर्णनों को पढ़कर सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उनके वर्णनों में कला की सशक्तता और अनुभूति की सजगता दोनों ही का सुन्दर संयोजन हुआ है। नेमिनिर्वाण में महाकवि वाग्भट में तीर्थडुर नेमिनाथ की देशना के प्रसंग में जैनदर्शन का विस्तृत वर्णन किया है । पन्द्रहवाँ सर्ग तो पूरा दार्शनिक ही है । इसमें रत्नत्रय (सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) के विवेचन के साथ जीवादि सात तत्त्वों का विस्तृत वर्णन किया गया है । जीव चेतना लक्षण वाला होता है । महाकवि वाग्भट ने इन्द्रिय संवेदन के आधार पर जीव के भेदों का विस्तृत विवेचन किया है । एक इन्द्रिय वाले जीव को स्थावर और दो से पाँच इन्द्रिय वाले जीवों को बस कहा जाता है । गति की अपेक्षा अथवा वित्त के परिणामों की अपेक्षा जीव के नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चार भेदों का विस्तृत विवेचन इस प्रसंग में हुआ है। अजीव तत्व को पाचँ भागों में विभक्त किया गया है-धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य, अणु, काल और आकाश । अणु को ही अन्यत्र पुद्गल कहा गया है धर्मद्रव्यगति में और अधर्मद्रव्य स्थिति में सहायक होता है । आकाश सर्वत्र व्याप्त और अनश्वर है । काल भी सर्वत्र व्याप्त और अनश्वर है किन्तु यह आकाश के समान अस्तिकाय नहीं है । मन, वचन काय का योग आत्रव कहलाता है । कमों और आत्मा का सम्बन्ध बन्ध कहलाता है । यह दो प्रकार का होता है- शुभ और अशुभ । उत्पन्न हुये आबद्ध कर्मों का रुक जाना संवर कहलाता है। कर्मों के फलों का भोगपूर्वक नाश हो जाना निर्जरा कहलाती है । निर्बरा के होने पर वह आत्मा दर्पण के समान निर्मल हो

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