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अध्याय आठ उपसंहार भारतवर्ष के नैतिक जीवन को सत्पथ की ओर उन्नयन करने में जिन महापुरुषों का महनीय योगदान रहा है, उनमें जैन धर्म के बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ अन्यतम हैं । यही कारण है कि उनके जीवन से प्रभावित होकर कवि निरन्तर काव्य-रचना करके अपनी लेखनी को सफल करते रहे हैं । जैन पुराणों के अनुसार जब सौरीपुर में समुद्रविजय के अरिष्टनेमि नामक पुत्र हुआ, उसके पूर्व समुद्रविजय के छोटे भाई वसुदेव के यहाँ श्रीकृष्ण का जन्म हो चुका था । इस प्रकार नेमि या अरिष्टनेमि श्री कृष्ण के ताऊजात भाई थे। उनके पावन जीवनचरित को महाकाव्यों में गुंफित करने वाले महाकवियों में वाग्भट का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
वाग्भटकृत नेमिनिर्वाण महाकाव्य में नेमिनाथ तीर्थङ्कर के केवल जीवन का चरितांकन ही नहीं हुआ है, अपितु इसमें महाकाव्य के समस्त गुणों का चित्रण हुआ है । इसमें जैनदर्शन के विचारों एवं जैन धर्म के सिद्धान्तों का भी अत्यन्त सरल एवं सुगम शैली में प्रतिपादन किया गया है । मानवीय सद्गुणों, दार्शनिक विचारों एवं धार्मिक सिद्धान्तों के मणिकांचन संयोग के कारण मुझे नेमिनिर्वाण पर यह शोध प्रबन्ध लिखने का विचार हुआ। ____ संस्कृत साहित्य में चरितकाव्यों की एक सुदीर्घ परम्परा है । यह परम्परा वैदिक, जैन और बौद्ध धर्म की विचारधाराओं से निरन्तर पल्लवित होती रही है । चरितकाव्यों के प्रणयन में जैन कवियों का महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा है । जैन कवि यद्यपि ईसा की दूसरी शताब्दी से ही निरन्तर संस्कृत साहित्य की सेवा कर रहे हैं, परन्तु चरितकाव्यों के प्रणयन की श्रृंखला में ईसा की सातवीं शताब्दी में विरचित रविषेणाचार्य का पद्मचरित प्रथम जैन चरितकाव्य है । इसके बाद अद्यावधि शताधिक चरितकाव्य लिखे गये हैं, जिनमें जैनधर्ममान्य तिरेसठ शलाकापुरुषों तथा अन्य पूज्य महापुरुषों का चरित वर्णित हुआ है । राम-लक्ष्मण, कृष्ण-बलदेव, प्रद्युम्न, हनुमान् आदि की गणना जैन धर्म में शलाका-पुरुषों में की गई है । अतएव जैनों ने अपनी परम्परानुसार इनको आधार बनाकर अनेक चरितकाव्यों की रचना की है । यहाँ तक कि जैन चरितकाव्यों के प्रणयन का श्रीगणेश प्राकृत एवं संस्कृत दोनों ही प्राचीन आर्य भाषाओं में रामकथा से ही हुआ है । पद्मचरित में राम का ही पतितपावन चरित वर्णित है । जैन धर्म में राम का नाम पद्म भी मिलता है। चरितकाव्यों को जैनधर्म में प्रथमानुयोग भी कहा जाता है । क्योंकि जैन परम्परा में सम्पूर्ण वाङ्मय चार अनुयोगों में विभक्त है और प्रथमानुयोग में ही परमार्थ का कथन करने वाले तिरेसठ शलाकापुरुषों एवं अन्य धार्मिक महापुरुषों का जीवनचरित वर्णित होता है ।
चरितकाव्यों का कालानुक्रमिक विवरण प्रस्तुत करते हुए बताया गया है कि ईसा की सातवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक कौन-कौन से चरितकाव्य लिखे गये हैं । इस विवरण में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि उनका रचनाकाल क्या है तथा किस काव्य की