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नेमिनिर्वाण : प्रभाव एवं अवदान
२११ (ब) तस्य जन्मभवने प्रबोधिताः सप्तमंगलमयस्य दीपकाः । आगता इव दिवो महर्षयः सेवनार्थमभुरभुतप्रभाः ।।
एवं बालस्य तस्य महसा सहसोधतेन, प्रध्वंसितान्धतमसे सदने तदानीम् । सेवागताम्बरमुनीनिवसप्त काचिद, दीपान्व्यबोधयत केवलमंगलार्थम् ।। प्रविश्य शच्या शुचि सूतिकागृहं समर्प मायामयमन्यमीदृशम् । प्रभुः कराभ्यां जगृहेऽथ मातृतः कृतप्रणामाय वराय चार्पितः ।।
प्रविश्य सद्मन्यथ सुव्रतायाः समर्प्य मायाप्रतिरूपमंके । शची जिनं पूर्वपयोधिवीचेः समुज्जहारेन्दुमिवोदितं द्यौः ।। प्रयुज्यमाने तव नाम्नि जायतां प्रकाममाद्यः पुरुषो मनीषिणाम् । जिनेश युष्मत्पदयोगसंभवेऽप्ययं भवत्युत्तम इत्यगोचरः ।।
एवं युष्मत्पदप्रयोगेण पुरुषः स्याद्यदुत्तमः ।
अर्थोऽयं सर्वथा नाथ लक्षस्याप्यगोचरः ।। इसी प्रकार अन्य अनेक स्थलों पर भी नेमिनिर्वाण का शब्दगत एवं अर्थगत साम्य दृष्टिगोचर होता है । तीर्थङ्कर परक ही कथावस्तु होने से भाव-साम्य तो दोनों काव्यों मे अनेकत्र है ही।
(२) धर्मशर्माभ्युदय में धर्मनाथ के तीर्थङ्कर पूर्वभवों का वर्णन हुआ है । नेमिनिर्वाण में भी नेमिनाथ तीर्थङ्कर के पूर्व भवों का वर्णन किया गया है।
(३) तीर्थङ्कर का गर्भावतरण, गर्भावतरण से पहले ही इन्द्र की आज्ञा से देवांगनाओं द्वारा तीर्थङ्कर की होने वाली माता की सेवा, रानी का सोलह स्वप देखना, तीर्थङ्कर के जन्म होने पर इन्द्र का आसन कम्पित होना, चतुर्णिकाय के देवों के साथ इन्द्र का आना, इन्द्राणी द्वारा नवजात बालक के स्थान पर मायामयी बालक को रखकर बालक को उठाना तथा इन्द्र को सौंपना, सुमेरु पर्वत पर १००८ कलशों द्वारा तीर्थङ्कर बालक का जन्माभिषेक किया जाना, तत्पश्चात् बालक को माता को सौंप कर इन्द्र का वापिस जाना, दीक्षा कल्याणक, तपश्चरण, केवलज्ञान एवं तीर्थङ्कर का उपदेश समान रूप से दोनों ही काव्यों में वर्णित हुआ है।
जिस प्रकार महाकवि वाग्भट ने पूर्ववर्तियों से कुछ ग्रहण किया है, उसी प्रकार पश्चात्वर्ती कवियों को उनका अवदान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। १. नैमिनिर्वण, ४/२३ २. धर्मशाभ्युदव,६/२०
३. मिनिर्वाण, ५/२ ४. धर्मशर्मभ्युदय,७/R ५. नेमिनिर्वण, ५/६८
६. धर्मशर्मभ्युदय, ३/५२