________________
अध्याय-तीन (ख) नेमिनिर्वाण का संवेद्य एवं शिल्प
नेमिनिर्वाण का महाकाव्यत्व संस्कृत के काव्यशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न भेदक तत्त्वों के आधार पर काव्य का विभाजन किया है। आचार्य भामह ने काव्य के भेदों का निरूपण चार मान्यताओं के आधार पर पृथक्-पृथक् चार प्रकार से प्रस्तुत किया है :
१. छन्द के सद्भाव या अभाव के आधार पर - (क) गद्य, (ख) पद्य २. भाषा के आधार पर - (क) संस्कृत, (ख) प्राकृत, (ग) अपभ्रंश ३. विषय के आधार पर - (क) ख्यातवृत्त, (ख) कल्पित, (ग) कलाश्रित,
(घ) शास्त्राश्रित ४. स्वरूप के आधार पर - (क) सर्गबन्ध, (ख) अभिनेयार्थ, (ग) आख्यायिका, (घ) कथा,
(ढ) अनिबद्ध
उपर्युक्त वर्गीकरण स्वरूप के आधार किया गया है । भामह का वर्गीकरण ही प्रायः पश्चात्वर्ती समस्त काव्यशास्त्रियों का आधार बना और वे इसी में कुछ परिवर्तन या परिवर्द्धन के साथ अपना वर्गीकरण प्रस्तुत करते रहे । भामह के इस वर्गीकरण में एक यही दोष है कि उन्होंने खण्डकाव्य को कोई स्थान नहीं दिया है । आचार्य दण्डी कथा और आख्यायिका को अलग-अलग दो भेद न मान कर एक ही के दो नाम मानते हैं । यहाँ केवल महाकाव्य पर विचार करना अभीष्ट है । अतः वर्गीकरण के विषय में अधिक विचार न करके महाकाव्य के बारे में विचार करना ही समीचीन होगा। आचार्य भामह ने सर्वप्रथम महाकाव्य का लक्षण प्रस्तुत करते हुए लिखा है :
“सर्गबद्ध महाकाव्य कहलाता है । वह महान चरित्रों से संबद्ध आकार में बड़ा, ग्राम्य शब्दों से रहित, अर्थ-सौष्ठव से सम्पन्न, अलंकारों से युक्त, सत्पुरुषाश्रित, मन्त्रणादूतप्रेषण, अभिमान, युद्ध नायक के अभ्युदय एवं पंच सन्धियों से समन्वित, अनतिव्याख्येय तथा ऋद्धिपूर्ण होता है । चतुर्वर्ग का निरूपण करने पर भी उसमें प्रधानता अर्थ निरूपण की होती है। उसमें लौकिक आचार तथा सभी रस विद्यमान रहते हैं । वंश, बल, ज्ञान आदि गुणों द्वारा नायक का पहले वर्णन करके दूसरे के उत्कर्ष करने की इच्छा से उसका वध वर्णित नहीं करना चाहिए। यदि काव्य में उसकी व्यापकता अपेक्षित न हो अथवा उसे अभ्युदयगामी न बनाना हो तो आरम्भ में उसका ग्रहण और प्रशंसा करना व्यर्थ है ।"३
___ भामह द्वारा प्रतिपादित महाकाव्य का यह लक्षण न केवल प्राचीन है, अपितु संक्षिप्त १. शब्दार्थो साहितौ काव्य गद्यं पद्यं च तद्विधा । संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंशं इति विधा ।।
वृत्तं देवादिचरितशंसि चोत्याद्यवस्तु च । कलाशास्त्राश्रयंचेति चतुर्धाभिद्यते पुनः ।।
सर्गबन्धोऽभिनेयार्थ तवैवाख्यायिकाकथे। अनिबद्धंच काव्यादि तत्पुनः पंचधोच्यते ।।- काव्यालंकार,१/१६-१८ २. तत्कथाख्यायिकेत्येका जातिः संज्ञाद्दयांकिता।- काव्यादर्श,१/२८ ३. काव्यालंकार,१/१९-२३