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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन
सार्थक पर भिन्नार्थक पाद, पद और वर्णों की उसी क्रम से संयुक्त या असंयुक्त पुनरावृत्ति को 'यमक' कहते हैं। यह यमक श्लोक के आदि में हो सकता है, मध्य में हो सकता है और अन्त में हो सकता है । इस प्रकार यमक के निम्न भेद माने गये हैं
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यमक
१५४
यमक
पादगत
संयुक्त
आदिमत मध्यगत अन्तगत
असंयुक्त
पदगत
वर्णगत
संयुक्त
आदिगत मध्यगत अन्तगत
आदिगत मध्यगत अन्तगत
संयुक्त
आदिगत मध्यगत अन्तगत
आदिगत
इस प्रकार यमक के १८ भेद माने गये है । 'पाद' श्लोक के चतुर्थाश को कहते हैं । 'पद' विभक्तियुक्त शब्द को कहते हैं । २
१. स्यात्पादपदवर्णानामावृत्तिः सुंयुतायुता । यमकं - वाग्भटालंकार चतुर्थ परिच्छेद श्लोक ४२ ३. वाग्भटालंकार चतुर्थ परिच्छेद, पृ० ५१
असंयुक्त
आदिगत मध्यगत अन्तगत
असंयुक्त
+
मध्यगत अन्तगत
"नेमिनिर्वाण" में कवि ने भिन्नार्थक वर्णों की आवृत्ति कर यमक की योजना विभिन्न भेदों में की है । नेमिनिर्वाण के पहले, छठे, सातवें तथा तेरहवें सर्ग में यमक योजना की गई है । जो निम्न प्रकार है
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अयुतावृत्तिमूलकः- दूसरे पाद की आवृति चतुर्थ पाद में हो और इन दोनों के बीच में तृतीय पाद आ जाने से “अयुतावृत्तिमूलक द्वितीय चातुर्थ पाद” यमक होता है । ३ "नेमिनिर्वाण" के निम्न श्लोक में यह यमक दृष्टिगोचर होता है अमरनगरस्मेराक्षीणां प्रपंञ्चयति स्फुर - त्सुरतरुचये कुर्वाणानां बलक्षम रंहसम । इह सह सुरैरायान्तीनां नरेश नगेऽन्वहं सुरतरुचये कुर्वाणानां वलक्षमरं हसम् ॥
हे पराक्रमी राजन् ! कल्पतरु से भरे-पूरे इस पर्वत की उस मनोरम भूमि को देखिये जो बाणवृक्षों से भरी पड़ी है। यह एकान्त किन्तु चित्ताकर्षक स्थान नित्यप्रति देवताओं के साथ स्वर्गलोक से आनेवाली सुरांगनाओं की संभोगाभिलाषा को उकसा देता है ।
भिन्नवाच्यानामादिमध्यान्तगोचरम् ॥
२. वाग्भटालंकार चतुर्थ परिच्छेद, पृ० ४९ ४. नेमिनिर्वाण, ७/१६