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मिनिर्वाण का संवेद्य एवं शिल्प : अलंकार
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पादद्वयान्त्ययमक : पूर्वार्द्धगत तथा उत्तरार्द्धगत अन्तगत पदों की आवृत्ति को 'अयुतावृत्तिमूलक प्रत्यर्धभाग भिन्न पादद्वयान्त्ययमक' कहते हैं ।
जहुर्वसन्ते सरसीं न वारणा बभुः पिकानां मधुरा नवा रणाः । रसं न का मोहनकोविदार कं विलोकयन्ती बकुलान्विदारकम् ।।२ बसन्त ऋतु में हाथियों ने सरोवरों को नहीं छोड़ा । कोकिल कूजन ने नवीन शोभा को धारण किया । किस कामशास्त्र - प्रवीण नायिका ने मौलश्री के वृक्षों को देखकर विरह-व्यथा का अनुभव नहीं किया अथवा किस कामातुरा नायिका ने अपने पति - प्रेम का आनन्द नहीं लूटा ।
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यहाँ पर पूर्वार्द्धगत 'नवारणा' और उत्तरार्द्धगत 'विदारकम् ' अन्तगत पदों की आवृत्ति से 'अयुतावृतित्तमूलक प्रत्यर्धभाग भिन्नपादान्त गतपदयमक' है ।
द्वितीयपादचतुर्थपादान्तयमक : जहाँ श्लोक के दोनों चरणों के अन्त में पद की आवृत्ति हो तो वहाँ अयुतावृत्तिमूलक पद्यार्द्धान्त्यभागगत पदयमक' होता है । यथा नेमिनिर्वाण
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में
वधं विधत्ते यदि जातु जन्तुरलं तपोदानविधानयनैः ।
तमेव चेन्नाद्रियते कदाचिदलं तपोदानविधानयत्नैः । ।
इस श्लोक में दोनों चरणों के अन्त में 'तपोदानविधानयनैः' पद की आवृत्ति है । अतः 'अयुतावृत्तिमूलकपद्यार्द्धान्त्यभागगतपदयमक' है ।
यमक अलंकार के प्रयोग के अन्य स्थल
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षष्ठ सर्ग - ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, ४७, ४८, ४९, ५१
सप्तम सर्ग - १६, २५
श्लेष :
दो या अधिक अर्थ जहाँ श्लिष्ट (चिपके) निबद्ध रहते हैं, वहाँ श्लेष अलंकार का चमत्कार दिखाई पड़ता है । नेमिनिर्वाण के प्रथम सर्ग के ग्यारहवें श्लोक में श्लेष अलंकार का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत है -
सुवर्णवर्णद्युतिरस्तु भूत्यै श्रेयान्विभुर्वो विनताप्रसूतः ।
उच्चैस्तरां यः सुगतिं ददानो विष्णोः सदानन्दयति स्म चेतः ॥५
१. वाग्भटालंकार चतुर्थ परिच्छेद, पृ० ५७
३. वान्भटालंकार चतुर्थ परिच्छेद, पृ० ५७ ५. नेमिनिर्वाण, १/११
२. नेमिनिर्वाण, ६/४७
४. नेमिनिर्वाण १३/१९