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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन
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धर्म द्रव्य :
धर्मद्रव्य का प्रयोग प्रचलित अर्थ में न होकर जैन दर्शन में पारिभाषिक अर्थ में होता है । यह गति में सहायक द्रव्य माना जाता है। यह सारे संसार में व्याप्त रहता है अखण्ड तथा फैला हुआ है । नेमिनिर्वाण के अनुसार यह गति का निमित्त है । तत्त्वार्थ सूत्र' आदि ग्रन्थों में यह विवेचन पुष्ट है ।
अधर्म द्रव्य :
जड़ और जीवों की स्थिति में अधर्म का उपयोग होता है। गति करने में जिस प्रकार धर्म सहायक होता है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल की स्थिति में अधर्म द्रव्य सहायक होता है । आकाश :
आकाश द्रव्य नित्य है, अवस्थित है और अरूपी है। संसार में जीवों को और पुद्गलों को पूर्ण रूप से अवकाश देता है वही आकाश द्रव्य कहलाता है ।' नेमिनिर्वाण में आकाश (द्रव्य) को संसार में सर्वत्र व्याप्त और अनश्वर कहा गया है । "
काल :
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नेमिनिर्वाण में काल द्रव्य को भी आकाश द्रव्य के समान व्याप्त और अनश्वर कहा गया है । कालद्रव्य भी आकाश आदि की तरह अमूर्तिक है । क्योंकि उसमें रूप, रस आदि गुण नहीं पाये जाते हैं । काल बहुप्रदेशीय नहीं है । क्योंकि लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में एक-एक कालाणुं पृथक्-पृथक् स्थित है । वे आपस में मिलते नहीं हैं । इसलिए जैन दर्शन
कल को द्रव्य मानते हुये भी अन्य द्रव्यों की तरह "अस्तिकाय” नहीं माना गया है । काल द्रव्य असंख्यात हैं किन्तु निष्क्रिय हैं, अतः एक स्थान से अन्य स्थान पर नहीं जाते हैं । वे स्थित रहते हैं । जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं यही निश्चय काल द्रव्य है । घड़ी, घण्टा आदि तो व्यवहारकाल हैं, जो निश्चय काल द्रव्य के पर्याय हैं ।
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(३) आनव :
मिनिर्वाण में कहा गया है कि मन, वचन, काय का योग कर्मों का आस्रव कहलाता है । यह आस्रव ही सम्पूर्ण संसार रूपी नाटक के आरम्भ के लिये सूत्रधार की तरह है ।
१. गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरूपकारः ।। तत्त्वार्थसूत्र ५ / १७
२. धर्मोगतिनिमित्तं स्यादधर्मः स्थितिकारणम् । नेमिनिर्वाण १५/७०
३. नित्यावस्थितान्यरूपाणि । तत्त्वार्थ सूत्र ५/४
४. आकाशान्ते द्रव्याणि स्वयाकाशतेऽथवा ।
द्रव्याणामाकाशं वा करोत्याकाशमस्त्वतः । तत्त्वार्थसार ३/३७
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जगतो व्यापकावेतौ कालाकाशवनश्वरौ । नेमिनिर्वाण १५ / ७१ ६. कायवाङ्मनसा योगः कर्मणाश्रव संज्ञितः ।
स हि निःशेष संसारनाटकारम्भसूत्रभृत् । । नेमिनिर्वाण १५/७५