Book Title: Nemi Nirvanam Ek Adhyayan
Author(s): Aniruddhakumar Sharma
Publisher: Sanmati Prakashan

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Page 206
________________ १९२ श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय ये चार घाती एवं वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार अघाती मिलकर आठ द्रव्य कर्म हैं तथा ज्ञानावरण आदि कर्मों से उत्पन्न होने वाले मोह आदिभाव भाव-कर्म कहलाते हैं । जो आत्मा के ज्ञान गुण को ढके है वह ज्ञानावरण कर्म, जो आत्मा के दर्शन गुण को ढके है दर्शनावरण कर्म, जो दर्शन मोह का स्वभाव तत्त्वार्थ श्रद्धान न होने देना है और चारित्र मोह का स्वभाव संयम को रोकना है यानि जो मोह राग और द्वेष भाव के उत्पन्न होने में निमित्त है वह मोह कर्म तथा जो दान, लोभ, भोग उपभोग, वीर्य में विन डालता है वह अन्तराय कर्म, जो बाह्य सामग्री के आलम्बन पूर्वक सुख-दुःख का वेदन कराने में निमित्त है वह वेदनीय, जो आत्मा को नरक, तिर्यंच, मनुष्य या देव शरीर (भव) में रोके रहे वह आयु कर्म, जो नाना प्रकार के शरीर व शारीरिक विविध अवस्थाओं के होने में निमित्त हो वह नाम कर्म, तथा जो ऊँच नीच कुल में पैदा होने में निमित्त हो वह गोत्र कर्म, कहलाते हैं। तप: नेमिनिर्वाण में अनेक स्थलों पर तप का वर्णन किया गया है । वहाँ कहा गया है कि यद्यपि तपस्या महत्त्वपूर्ण है तथापि प्राणी-वध में अभिरुचि रखने वाले की तपस्यायें व्यर्थ हैं । जैन दर्शन में एवं आचार में तप का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि तप संवर के साथ-साथ निर्जरा का भी कारण है । तप के प्रभाव से नये कर्मों का संवर होता है और प्राचीन कर्मों की निर्जरा होती है । तप का प्रधान फल कर्मों का नाश होना, एवं गौण फल सांसारिक ऐश्वर्य की प्राप्ति है । तप आत्मा से कर्म मैल को हटा देता है तथा इससे कामवासना नष्ट होती है । इस प्रकार तप से कर्मों की अविपाक निर्जरा होती है, जो मोक्ष का साक्षात्कारण है । इसी लिए दश धर्मों में भी तप को परिगणित किया गया है । तप बाह्य और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का होता है । बाह्य तप: जिसमें शारीरिक क्रियाओं की प्रधानता होती है और जो दूसरों को देखने में भी आता है वह बाह्य तप है । इसके छः भेद हैं। (१) अनशन - इसे उपवास भी कहते हैं। (२) अवमौदर्य - भूख से कम खाना अवमौदर्य तप है। (३) वृतिपरिसंख्यान - प्रतिज्ञा एवं रीति के अनुसार आहार मिलने पर ही ग्रहण करना । (४) रस परित्याग - इन्द्रियों के दमन के लिये घी, दूध आदि का यथाशक्ति त्याग । (५) विविक्त शय्यासन - ब्रह्मचर्य आदि की सिद्धि के लिये एकान्त में शयन एवं आसन। (६) कायक्लेश - परिषह सहन के लिये पद्मासन आदि लगाना । १. नेमिनिर्वाण, १३/१८-१९

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