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नेमिनिर्वाण : दर्शन एवं संस्कृति - दर्शन
१९३ अन्तरंग तप:
जिसमें मानसिक क्रिया की प्रधानता होती है और दूसरे को दिखाई नहीं पड़ता है उसे अन्तरंग तप कहते हैं । इसके भी छह भेद हैं :(१) प्रायश्चित - प्रमाद जनित दोषों का शोधन करना प्रायश्चित है । (२) विनय - परिणामों को कोमल बनाना विनय तप है। (३) वैयावृत्य - भक्तिभाव सहित पूज्यपुरुषों की सेवा वैयावृत्य है । (४) स्वाध्याय - शास्त्रों का आलस्य रहित अभ्यास स्वाध्याय है। (५) व्यत्सर्ग - बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह को त्यागना, तथा भावों को निःसंग शुद्ध बनाना। (६) ध्यान - विकल्परूप चित्त की चंचलता का त्याग । अनेकांत :
अनेकांत का अर्थ है परस्पर विरोधी दो तत्वों का एकत्र संमन्वय । तात्पर्य यह है कि जहाँ दूसरे दर्शनों में वस्तु को केवल सत् या असत् सामान्य या विशेष, नित्य या अनित्य, एक या अनेक और भिन्न या अभिन्न स्वीकार किया गया है । वहाँ जैन दर्शन में वस्तु को सत् और असत्, सामान्य और विशेष, नित्य और अनित्य, एक और अनेक तथा भिन्न और अभिन्न स्वीकार किया गया है और जैन दर्शन की यह मान्यता परस्पर विरोधी दो तत्वों के एकत्र समन्वय को सूचित करती है ।।
नेमिनिर्वाण में प्रथम सर्ग में पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति करते हुये उन्हें अनेकान्त का विधान करने वाला कहा है ।
१. तपसा निर्जरा च - तत्त्वार्थ सूत्र-८/३ १. न्यावदीपिका पृ० ३ २. मिनिर्वाण १/२३