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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन राजा:
नेमिनिर्वाण में राष्ट्र नीति तथा राजनीति का क्रमबद्ध वर्णन नहीं हुआ है, क्योंकि यह एक काव्यग्रन्थ है । फिर भी राजा तथा उसके कर्तव्य आदि के विषय में छुटपुट उल्लेख मिलता है । राजतन्त्रीय व्यवस्था में राजा को सर्वोच्च स्थान प्राप्त होता है । मनुस्मृति के अनुसार सम्पूर्ण सम्प्रभुता राजा में ही निहित होती है। राजा के अभाव में राज्य की कल्पना असम्भव है । प्रजा का अनुरंजन ही राजा का मुख्य कर्तव्य होता है । समुद्रविजय तथा श्रीकृष्ण आदि राजाओं में प्रजा को प्रसन्न रखने के गुण विद्यमान हैं । शत्रुओं को पराक्रम दिखाना, अपराधियों को कठोर दण्ड देना तथा सज्जनों की रक्षा करना राजा का धर्म बताया है । नेमिनिर्वाण में राजा समुद्रविजय के पराक्रम से सभी राजाओं की तीन स्थितियाँ हुई - उसके चरणों की सेवा, युद्ध में मृत्यु अथवा गहन वन में निवास । जिस राजा की छत्रछाया में दुष्टों का समूह सन्ताप को प्राप्त हुआ तथा जिसके पराक्रम से शत्रुओं ने स्पर्धा से देश त्याग कर दिया ।' राजा का उत्तराधिकारी :
प्रायः राजा का उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र ही होता था और वही राजतन्त्र की मर्यादा भी होती है । परन्तु इसके विपरीत भी देखा जाता है जैसा कि नेमिनिर्वाण में राजा समुद्र विजय ने अपने भाई वसुदेव को अपने प्रति भक्तिभाव युक्त जानकर उसके पुत्र चक्रपाणि श्रीकृष्ण को युवराज बनाया, जिससे देवगण बहुत प्रसन्न हुये तथा जो जनता को अतिप्रिय था उन्होंने यमुना के प्रवाह को नियंत्रित किया तथा पूतना तथा केशी राक्षसों को मारा तथा गोवर्धन पर्वत उठाकर द्वारकापुरी की रक्षा की ।
अतः कभी कभी राजा निःसन्तान होने से तथा सन्तान अल्प वयस्क होने से भी अपने किसी परिवार में से उचित तथा बलिष्ठ, विद्वान और प्रजा के प्रिय को भी (युवराज) उत्तराधिकारी बना सकता था । राजा की दानवीरता एवं यश :
नेमिनिर्वाण में राजा समुद्रविजय की दानवीरता के विषय मे कहा है कि वह सभी प्रकार के आहार दानों को देता हुआ भी जो याचकों को अक्षीर (दूध से भिन्न - आंखों से प्रेरित) अन्न को देने वाला हुआ । दान देने वाला होते हुये भी (दनु का पुत्र राक्षस होने पर भी) देवताओं का भक्त था ।
जिस राजा का यश चारों दिशाओं में फैला था तथा जिसकी सेवा वशीवृति राजा नित्यप्रति किया करते थे। तथा जिसके यश को सुनने में असमर्थ होते हुये शत्रु युद्ध में मृत्यु १. मनुस्मृति, ७७ २. राज्ञो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपलनं च धर्मः। - नीतिवाक्यामृत, ५/२ ३. नेमिनिष्प, १/६२, ६३, ६५ । ४. वही, १/७३,७५,७९ ५. वहीं,१/६९ ६. वहीं, २/१