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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन
देश - विरत गुणस्थानों में होता है । रौद्र ध्यान नरक गति का कारण है । रौद्र ध्यानी जीव हिंसा झूठ चोरी विषय - सरंक्षण या परिग्रह में आनन्द मानकर उन्हीं की चिन्ता में रत रहता है । (३) धर्म ध्यान
शुभ राग और सदाचार के पोषण का चिन्तन करना धर्म ध्यान है । यह ध्यान आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान विचय इन चार निमित्तों से होता है। अतः चार प्रकार का है । २ अच्छे उपदेश के न होने से, अपनी बुद्धि के मंद होने से और पदार्थ के सूक्ष्म होने से जब युक्ति और उदाहरण की गति न हो तो ऐसी अवस्था में सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे गये आगम को प्रमाण मानकर गहन पदार्थ का श्रद्धान कर लेना कि यह ऐसा ही है, आज्ञाविचय है। अथवा स्वयं तत्त्वों का जानकार होते हुये भी दूसरों को उन तत्त्वों को समझाने के लिये युक्ति दृष्टान्त आदि का विचार करते रहना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । स्वयं के और संसारी जीवों के दुःख का विचार करना और उससे छूटने के उपाय का चिंतवन करना अपाय विचय धर्मध्यान है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इनकी अपेक्षा कर्म कैसे-कैसे फल देते हैं, इसका सतत विचार करना विपाक विचय धर्मध्यान है। लोक के आकार और उसके स्वरूप के विचार में अपने चित्त को लगाना संस्थान विचय धर्मध्यान है । धर्मध्यान मनुष्य गति एवं देवगति की प्राप्ति का हेतु है । (४) शुक्ल ध्यान
कषाय रहित भावों से किसी एक पदार्थ पर चित्त का लगना शुक्ल ध्यान कहलाता है। इससे परिणामों में निर्मलता आती हैं शुक्ल ध्यान साक्षात् मोक्ष का हेतु है। शुक्ल ध्यान के चार भेद किये गये हैं - पृथक्त्व वितर्क, एकत्व वितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिर्वृत्ति। मन वचन काय के द्वारा अनेक भेदों से युक्त द्रव्यों का ध्यान पृथक्त्ववितर्क नाभ का शुक्ल ध्यान है । मन वचन काय में से किसी एक योग के द्वारा एक द्रव्य का ध्यान एकत्व वितर्क शुक्ल ध्यान है। काय योग की सूक्ष्म क्रियाओं के काल में जो ध्यान होता है, वह सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति शुक्त ध्यान होता है । व्युपरतक्रिया निर्वृत्ति नामक शुक्ल ध्यान योग रहित जीव को होता है । अन्य जीवों के लिये दुर्लभ है ।
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पंच पाप :
निर्वाण के त्रयोदशसर्ग में पंच पापों के त्याग का विवेचन किया गया है ।"
(१) हिंसा
प्रमाद - कषाय-राग-द्वेष (अवनाचार के सम्बन्ध) अथवा प्रमादी जीव के मन वचन काय योग से जीव अपने तथा दूसरों के भाव अथवा द्रव्य प्राणों का अथवा दोनों का घात करना हिंसा है ।" यह हिंसा चार प्रकार की हो सकती है - जो हिंसा गृहस्थियों को खाना बनाने,
१. तत्त्वार्थ सूत्र ९ / ३५ ४. नेमिनिर्वाण, १३/८-९
२. वही, ९ / ३६
३. वही, ९ / ३९ ५. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा । तत्वार्थ सूत्र ७ /१३