Book Title: Nemi Nirvanam Ek Adhyayan
Author(s): Aniruddhakumar Sharma
Publisher: Sanmati Prakashan

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Page 198
________________ १८४ श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन (१) जीव जीव चेतन होता है । इन जीवों में सभी का ज्ञान भिन्न-भिन्न होता है । जैन दर्शन के अनुसार जीव या आत्मा को स्वदेह परिमाण माना गया है । इन्द्रिय संवेदन के आधार पर जीव के पांच भेद माने गये हैं - पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक। जीवों की एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है । लट, शंख, जोंक, वगैरह के स्पर्शन-रसना ये दो इन्द्रियाँ, भौंरा, मक्खी, डांस, मच्छर, इत्यादि के स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु ये ४ इन्द्रियाँ और मनुष्य, पशु, पक्षी, महामत्स्य आदि के पाँच इन्द्रियाँ होती हैं । महाकवि वाग्भट ने नेमिनिर्वाण में इन्द्रिय संवेदन के आधार पर जीव के भेदों का विस्तृत विवेचन किया है। एक इन्द्रिय वाले को स्थावर और दो इन्द्रिय से पंच इन्द्रिय वाले को बस कहा जाता है। गति की अपेक्षा अथवा चित्त के परिणामों की अपेक्षा से नेमिनिर्वाण में जीव के चार भेद किये गये हैं । नारकीय, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवता । वहाँ कहा गया है कि जो अत्यधिक परिग्रह में रत हिंसक एवं रौद्र आत्मवृत्ति वाले होते हैं वे सात नरकों में उत्पन्न होते हैं। नरकों की संख्या सात मानी गयी है । “रत्न शर्कराबालुकापंकधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयोधघनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताऽधोऽधः । नरक के दुखों का वर्णन करते हुये नेमिनिर्वाण में कहा गया है - नारकीय जीवन में बँधते हैं काढे जाते हैं और उसे छेदन तथा भेदन (बींधने) को सहन करते हैं, काटे जाते हैं और बार-बार निर्दयता पूर्वक मारे जाते हैं । तपी हुई लोहे की शिलाओं पर बैठना पड़ता है। लोहे की कीलियों पर सोना पड़ता है तथा खौलते हुए तेल से सींचे जाते हुए वे अपने कर्मों का भोग करते हैं । अस्त्रों के द्वारा ताड़ित होने पर उनके मुखों से हृदय मे जलती हुई मुखरूपी ज्वालाओं की तरह खून की धारायें निकलती रहती हैं । कांटों के अग्रभाग के समान तीक्ष्ण नाखूनों से चीरे जाने पर व्याकुल होकर लाल नेत्रों वाले होकर वे दीर्घ काल तक नरकों के दुःख को भोगते हैं । माया कषाय के उदय से छल प्रपंच करने के कारण जिस पशु-पक्षी आदि गति को जीव प्राप्त करता है, उसे तिर्यञ्च गति कहते हैं । नेमिनिर्वाण में तिर्यञ्च गति का वर्णन करते हुये कहा गया है कि "यह मुझे प्राप्त हो या न हो” इस प्रकार के आर्तध्यान वाले जीव मरकर विभिन्न तिर्यंच योनियों में उत्पन्न होते हैं वे अपने कर्म बन्धन की तरह रस्सियों से बांधे जाते हैं । कुछ लोग उन पर आरोहण करके लाठियों से उन्हें अत्यधिक ताड़ित करते हैं । जंगलों १. चेतनालक्षणो जीवः शरीरपरिमापभाक् ! एकेन्द्रियादिभेदेन पंच यावत्स जायते ।। - नेमिनिर्वाण, १५/५२ २. वनस्पत्यन्तानामेकम् । - तत्त्वार्थसूत्र २/२२ ३. कृमिपिपीलिकाश्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि । वही, २/२३ ४. नेमिनिर्वाण, १५/५३-५४ ५.नेमिनिर्वाण,१५/५५-५६ ६ . तत्वार्थ सूत्र ३१ ७. नेमिनिर्वाण-१५/५५-६० ८. मावात्तैर्वग्योनस्य । तत्त्वार्थ सूत्र ६/१६

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