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नेमिनिर्वाण : दर्शन एवं संस्कृति - दर्शन
१८३ मतिज्ञान द्वारा चींटी खाद्यान्न को ग्रहण करके श्रुतज्ञान द्वारा इष्ट जानती है । इसी प्रकार अग्नि जो श्रुतज्ञान के द्वारा अनिष्ट जान कर हट जाती है । अवधिज्ञान : . - द्रव्य क्षेत्र काल भाव की मर्यादा लिये हुये रूपी पदार्थ का इन्द्रियादिक की सहायता बिना जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वह अवधि ज्ञान है । मनःपर्ययज्ञान :
मनुष्य लोक में वर्तमान जीवों के मन में स्थित जो रूपी पदार्थ है, जिनका उन जीवों ने सरल रूप में या जटिल रूप से विचार किया है या विचार कर रहे हैं या भविष्य में विचार करेंगे, उनकी मन की अवस्थाओं को स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को मनः पर्ययज्ञान कहते हैं ।
इस प्रकार अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान केवल रूपी पदार्थ को जानने वाले होने से आत्मज्ञान और केवलज्ञान में सहायक नहीं हैं । यह तो चमत्कारिक ज्ञान है । केवलज्ञान :
त्रिकालवर्ता समस्त द्रव्यों की सब पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। सम्यग्चारित्र :
जो दोष रहित सम्यग्दर्शन से विशुद्ध सभी गुणों से युक्त है, सुख-दुःख में भी समान रहता है, आत्मा के ध्यान में लीन रहता है, राग-द्वेष और योग को हटाकर जो स्वरूप को जानता है वही सम्यक् चारित्र होता है । वस्तुतः संसार को बढ़ाने वाले रागद्वेषादि अन्तरंग क्रियाओं और हिंसा आदि बहिरंग क्रियाओं से विरक्त होकर आत्मा का अपने स्वरूप में स्थिर हो जाना सम्यक्चारित्र कहलाता है। ..
सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, ये तीनों मिलकर मोक्ष (मुक्ति) के उपाय होते हैं । किसी एक या किन्हीं दो के होने पर भी मुक्ति की प्राप्ति सम्भव नहीं है । सप्त तत्त्वों का विवेचन :
"नेमिनिर्वाण" काव्य के पंचदश सर्ग में सात तत्त्वों का विवेचन हुआ है जिनका पृथक्-पृथक् रूप से संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है - नेमिनिर्वाण में जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सप्त तत्त्वों का वर्णन करते हुये कहा है कि उन तत्त्वों से तीनों लोक व्याप्त हैं । और इनके ज्ञान होने से ही अन्ततः मुक्ति प्राप्त होती है । यह भगवान जिनेन्द्र ने कहा है। १. उपेक्षणं तु चारित्रं तत्त्वार्थानां सुनिश्चितम् । तत्वार्थसार १/४ २. जीवाजीवाश्रवा बन्धसंवरौ निर्जरान्वितौ ।
मोक्षश्च तानि तत्त्वानि व्याप्नुवन्ति जगत्रयम् ।। - नेमिनिर्वाण, १५/५१