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नेमिनिर्वाण : दर्शन एवं संस्कृति - दर्शन
१८१ भारतीय दर्शनों के इन तीन वर्गीकरणों में अन्तिम दो वर्गीकरण युक्ति पर आधारित हैं और प्रथम वर्गीकरण अतिशयित वैदिक आस्था पर आधारित है । अर्वाचीन विद्वानों ने युक्ति पर आधारित अन्तिम दो वर्गीकरणों को अधिक महत्त्व दिया है, क्योंकि युक्ति, दर्शन का आवश्यक तत्त्व है।
- महाकवि वाग्भट विरचित "नेमिनिर्वाण" एक दार्शनिक ग्रन्थ न होकर एक महाकाव्य है । अतः इस काव्यं में क्रमबद्ध रूप से दार्शनिकता दृष्टिगोचर नहीं होती, परन्तु महाकवि वाग्भट जैन धर्मानुयायी थे । अतः उनके इस काव्य में जैन दर्शन का बहुशः उल्लेख हुआ है । नेमिनिर्वाण काव्य के पन्द्रहवें सर्ग में इसे विशिष्ट रूप में देखा जा सकता है ।
जैन दर्शन में जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष, इन सात तत्वों के यथार्थ ध्यान, ज्ञान एवं तदनुकूल आचरण को मुक्ति-मार्ग माना है। कुछ जैनाचार्यों ने इन सात तत्त्वों में पुण्य एवं पाप इन दो को जोड़कर नौ पदार्थ माने हैं । अतः नेमिनिर्वाण में मुक्ति के मार्ग के रूप में सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवम् सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय तथा उनके आश्रयभूत सात तत्त्वों का ही विवेचन हुआ है। रत्नत्रय :
जैन दर्शन में सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की "रत्नत्रय" संज्ञा है । “समयसार" एवं “नयचक्र" में रत्नत्रय को आत्मा रूप कहा है । जैन सिद्धान्त के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। ये तीनों “तैलवर्तिकादीपकन्याय" से मोक्ष के कारण माने गये हैं । इसीलिए तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों को मिलकर मोक्षमार्ग की संज्ञा दी है।' सम्यग्दर्शन :
- तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा जाता है । जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष ये सात तत्त्व माने गये हैं। समयसार आदि में इन सात के अतिरिक्त "पुण्य” “पाप" को भी ग्रहण करने से नौ संख्या स्वीकार की गई है । भाव यह है कि इन तत्त्वों के स्वरूप को भली भाँति जानकर उन पर वैसी ही श्रद्धा करना, सम्यक्दर्शन कहलाता है ।
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नेमिनिर्वाण, १५/६,१५/४६
२. नयचक्र ३२३ एवं समयसार गाथा १/१६ ३. स्यात सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रियात्मकः।
मार्गोमोक्षस्य भव्यानां युक्त्यागमसुनिश्चितः ।। - तत्त्वार्थसार १/३ एवं द्र०-समयसार १७ एवं नयचक्र ३२१ ४. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। - तत्त्वार्थसूत्र १/२ ५. तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम! जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । वही १२,४ ६. भूदत्येणाभिगदा जीवाजीवा व पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मतं ।। समयसार १/१३