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नेमिनिर्वाण : दर्शन एवं संस्कृति - दर्शन
१८५ मे घास को खाते हुये ठण्ड वर्षा और गर्मी का दुःख सहते हुये हिंसक प्राणियों और बहेलियों के दुःख से व्याकुल होकर वे कभी भी सुख को प्राप्त नहीं करते हैं । कुछ अपवित्र पदार्थों का भोजन करते हैं और कुछ स्पर्श के अयोग्य होते हैं । कुछ मुख में विष वाले होते हैं और कुछ घाव आदि में कृमि के रूप में बारम्बार उत्पन्न होते रहते हैं ।
आर्त और रौद्र परिणाम के साथ धर्मध्यान से भावित प्राणी मरकर कर्मभूमि में मनुष्य बनते हैं। उनमें कुछ तो सुन्दर खेत में धान्य की तरह उत्तम कुल में उत्पन्न होते हैं और कुछ अभव्य अपने दुष्कर्मों के भाव से घुन की तरह मलेच्छ आदि अनार्यों के मलिन कुल में उत्पन्न होते हैं।
__ जो मन, वचन, काय से दूसरे को पीड़ित करने की इच्छा नहीं करते हैं, वे तपस्या और दानादि के प्रभाव से देव लोक में उत्पन्न होते हैं । वहाँ पर दिव्य देवांगनाओं के सुखों को भोगते हुए समययापन करते हैं । (२) अजीव :
___ यद्यपि मोक्ष प्राप्ति के लिये आत्मा ही उपादेय तत्त्व है । अजीव तत्त्व तो हेय है, किन्तु हेय तत्त्व को जाने बिना उपादेय तत्त्व का आश्रय लेना सम्भव नहीं है । इसलिये नेमिनिर्वाण के पन्द्रहवें सर्ग में प्रसंगतः अजीव का विवेचन हुआ है । जीव से विपरीत लक्षण वाला अजीव होता है। अजीव तत्त्व जीव तत्त्व का विपरीत होता है । जिसमें चेतना नहीं होती वही अजीव है । जीव के लक्षण से ही अजीव का लक्षण स्पष्ट हो जाता है । नेमिनिर्वाण में अजीव तत्त्व को पाँच भागों में विभक्त किया है - (१) धर्म द्रव्य, (२) अधर्म द्रव्य, (३) अणु, (४) कालद्रव्य, और (५) आकाश द्रव्य ।' अणु या मुद्गल
नेमिनिर्वाण में प्रयुक्त अणु शब्द पुद्गल का उपलक्षण है क्योंकि अन्य सभी जगह पुद्गल शब्द का ही प्रयोग हुआ है । इनमें से पुद्गल मूर्तिक्रिया रूपी है और शेष चारों अमूर्तिक्रिया अरूपी हैं । अणु या पुद्गल द्रव्य ही समग्र आरम्भ का कारण है। जिसका टुकड़ा नहीं हो सकता है ऐसे रूपी द्रव्य को अणु और अणुओं के परस्पर मिश्रण को स्कन्ध कहते हैं ।
१. नेमिनिर्वाण १५/६१-६४
२. वही,१५/६५-६७ ३. वही,१५/६८-६९
४. तद्विपर्ययलक्षणो जीवः ।। सर्वार्थसिद्धि१/४ ५. धर्माधर्माणवः कालाकाशौ चाजीवसंशिताः।
धर्मो गतिनिमित्तं स्यादधर्मः स्थितिकारणम् । नेमिनिर्वाण १५/७० अजीवो पुणमेओ पुग्गल धम्मो अधम्म आयास । कालो पुग्गल मुत्तो रूठादिगुणों अमुक्ति सेसा दु।। - द्रव्यसंग्रह - १५